श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- तुलसीदास जी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Tulsidas ki Deenata aur Ram Bhaktimayi Kavita ki Mahima

Tulsidas’s humility and the glory of poetry describing Shri Ram’s greatness | Tulsidas ki Deenata aur Ram Bhaktimayi Kavita ki Mahima | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- तुलसीदास जी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा

॥ दोहा : ॥

भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास ।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥ 8 ॥

भावार्थ:- मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे ॥ 8 ॥

॥ चौपाई : ॥

खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥
हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥ 1 ॥

भावार्थ:- किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा । मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं । जैसे बगुले हंस को और मेंढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं ॥ 1 ॥

कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी । प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं ॥ 2 ॥

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की । तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की ॥ 3 ॥

भावार्थ:- जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी । जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच- नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथ जी की यह कथा मीठी लगेगी ॥ 3 ॥

राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥ 4 ॥

भावार्थ:- सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्री राम जी की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे । मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ ॥ 4 ॥

आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥
भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥ 5 ॥

भावार्थ:- नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति- भाँति के गुण-दोष होते हैं ॥ 5 ॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ॥ 6 ॥

भावार्थ:- इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ 6 ॥

॥ दोहा : ॥

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक ॥ 9 ॥

भावार्थ:- मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥9॥

॥ चौपाई : ॥

एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- इसमें श्री रघुनाथ जी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वती जी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं ॥ 1 ॥

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ । राम नाम बिनु सोह न सोउ ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोह न बसन बिना बर नारी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती । जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती ॥ 2 ॥

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥ 3 ॥

भावार्थ:- इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं ॥ 3 ॥

जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री राम जी का प्रताप प्रकट है । मेरे मन में यही एक भरोसा है । भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया? ॥ 4 ॥

धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥ 5 ॥

भावार्थ:- धुआँ भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है । मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली राम कथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है । (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।) ॥ 5 ॥

॥ छंद : ॥

मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ।
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है । मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगा जी) की चाल की भाँति टेढ़ी है । प्रभु श्री रघुनाथ जी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी । श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेव जी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है ।

॥ दोहा : ॥

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग ।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥ 10 (क) ॥

भावार्थ:- श्री राम जी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी । जैसे मलय पर्वत के संग से काष्ठ मात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है? ॥ 10 (क) ॥

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ 10 (ख) ॥

भावार्थ:- श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है । यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं । इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीता -राम जी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं ॥ 10 (ख) ॥

॥ चौपाई : ॥

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती । राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं ॥ 1 ॥

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है । (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है ।) कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती जी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं ॥ 2 ॥

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सरस्वती जी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती । कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं ॥ 3 ॥

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥ 4 ॥

भावार्थ:- संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती जी सिर धुनकर पछताने लगती हैं । (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई) बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं ॥ 4 ॥

जौं बरषइ बर बारि बिचारू । हो हिं कबित मुकुतामनि चारू ॥ 5 ॥

भावार्थ:- इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता होती है ॥ 5 ॥

॥ दोहा : ॥

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ 11 ॥

भावार्थ:- उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुंदर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है । (वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं) ॥ 11 ॥

॥ चौपाई : ॥

जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर कलि मल भाँड़े ॥ 1 ॥

भावार्थ:- जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं ॥ 1 ॥

बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धींग धरम ध्वज धंधक धोरी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो श्री राम जी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्व जी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है ॥ 2 ॥

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने । थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ 3 ॥

भावार्थ:- यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा । इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है । बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे ॥ 3 ॥

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥ 4 ॥

भावार्थ:- मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा । इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं ॥ 4 ॥

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥ 5 ॥

भावार्थ:- मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्री राम जी के गुण गाता हूँ । कहाँ तो श्री रघुनाथ जी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि ! ॥ 5 ॥

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥
समुझतअमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ॥ 6 ॥

भावार्थ:- जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है । श्री राम जी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है ॥ 6 ॥

॥ दोहा : ॥

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान ।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ॥ 12 ॥

भावार्थ:- सरस्वती जी, शेष जी, शिव जी, ब्रह्मा जी, शास्त्र, वेद और पुराण ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं ॥ 12 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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