Sita ji worships Goddess Parvati, receives Her Blessings, and Dialogue between Ram ji Lakshman ji | Shri Sita jee ka Parvati Pojan, Varadan Prapti tatha Ram-Lakshman Samvad | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री सीता जी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद
॥ दोहा : ॥
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि ।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ 234 ॥
भावार्थ:- मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार घूम जाती हैं और श्री राम जी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है)॥234॥
॥ चौपाई : ॥
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति । चली राखि उर स्यामल मूरति ॥
प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥ 1 ॥
भावार्थ:- शिव जी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री राम जी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं । (शिव जी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथ जी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं । प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं ।) प्रभु श्री राम जी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकी जी को जाती हुई जाना,॥1॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही । चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही ॥
गई भवानी भवन बहोरी । बंदि चरन बोली कर जोरी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- तब परम प्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया । सीता जी पुनः भवानी जी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी । जय महेस मुख चंद चकोरी ॥
जय गजबदन षडानन माता । जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥ 3 ॥
भावार्थ:- हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेव जी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेश जी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिक जी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि । बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥ 4 ॥
भावार्थ:- आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है । आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते । आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं । विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥
॥ दोहा : ॥
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख ।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ 235 ॥
भावार्थ:- पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है । आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेष जी भी नहीं कह सकते॥235॥
॥ चौपाई : ॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी । बरदायनी पुरारि पिआरी ॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥ 1 ॥
भावार्थ:- हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिव जी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं । हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें । बसहु सदा उर पुर सबही कें ॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं । अस कहि चरन गहे बैदेहीं ॥ 2 ॥
भावार्थ:- मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकी जी ने उनके चरण पकड़ लिए॥2॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी । खसी माल मूरति मुसुकानी ॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ । बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥ 3 ॥
भावार्थ:- गिरिजा जी सीता जी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीता जी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरी जी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥
नारद बचन सदा सुचि साचा । सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥ 4 ॥
भावार्थ:- हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारद जी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥4॥
छन्द :
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो । करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥ एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली । तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥
भावार्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री रामचन्द्र जी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरी जी का आशीर्वाद सुनकर जानकी जी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदास जी कहते हैं- भवानी जी को बार-बार पूजकर सीता जी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥
सोरठा :
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥ 236 ॥
भावार्थ:- गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥236॥
॥ चौपाई : ॥
हृदयँ सराहत सीय लोनाई । गुर समीप गवने दोउ भाई ॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥ 1 ॥
भावार्थ:- हृदय में सीता जी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्र जी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥1॥
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही । पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे । रामु लखनु सुनि भय सुखारे ॥ 2 ॥
भावार्थ:- फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥2॥
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई । संध्या करन चले दोउ भाई ॥ 3 ॥
भावार्थ:- श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्र जी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने में) दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई संध्या करने चले॥3॥
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा । सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम हिमकर नाहीं ॥ 4 ॥
भावार्थ:- (उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्र जी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीता जी के मुख के समान नहीं है॥4॥
॥ दोहा : ॥
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक ।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ॥ 237 ॥
भावार्थ:- खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीता जी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥
॥ चौपाई : ॥
घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई । ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ॥ 1 ॥
भावार्थ:- फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीता जी में नहीं हैं।)॥1॥
बैदेही मुख पटतर दीन्हे । होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे ॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी । गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- अतः जानकी जी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीता जी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा । आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥
बिगत निसा रघुनायक जागे । बंधु बिलोकि कहन अस लागे ॥ 3 ॥
भावार्थ:- मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथ जी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥
उयउ अरुन अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक सुखदाता ॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी । प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥ 4 ॥
भावार्थ:- हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मण जी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥

धन्यवाद !
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