श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Valmiki, Vedas, Brahma, Devta, Shiva, Parvati ki Vandana

Salutations to Rishi Valmiki, Vedas, Brahma, Gods and Goddesses, Shiva and Parvati | Valmiki, Vedas, Brahma, Devta, Shiva Parvati ki Vandana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना

॥ सोरठा : ॥

बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥14 (घ) ॥

भावार्थ:- मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर (कठोर) से विपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात्‌ दोष से रहित है ॥ 14 (घ) ॥

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस ।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ 14 (ङ) ॥

भावार्थ:- मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता ॥ 14 (ङ) ॥

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥14 (च) ॥

भावार्थ:- मैं ब्रह्मा जी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए ॥ 14 (च) ॥

॥ दोहा : ॥

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि ।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि ॥ 14 (छ) ॥

भावार्थ:- देवता, ब्राह्मण, पंडित, ग्रह- इन सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूरा करें ॥ 14 (छ) ॥

॥ चौपाई : ॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥
मज्जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥ 1 ॥

भावार्थ:- फिर मैं सरस्वती और देव नदी गंगा की वंदना करता हूँ । दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं । एक (गंगा जी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वती जी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है ॥ 1 ॥

गुर पितु मातु महेस भवानी । प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥ 2 ॥

भावार्थ:- श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीता पति श्री रामचन्द्र जी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं ॥ 2 ॥

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥
अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्री शिव जी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है ॥ 3 ॥

सो उमेस मोहि पर अनुकूला । करिहिं कथा मुद मंगल मूला ॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित चाऊ ॥ 4 ॥

भावार्थ:- वे उमापति शिव जी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री राम की) इस कथा को आनन्द और मंगल की मूल (उत्पन्न करने वाली) बनाएँगे । इस प्रकार पार्वती जी और शिव जी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री राम चरित्र का वर्णन करता हूँ ॥ 4 ॥

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती । ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥
जे एहि कथहि सनेह समेता । कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥ 5 ॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी । कलि मल रहित सुमंगल भागी ॥ 6 ॥

भावार्थ:- मेरी कविता श्री शिव जी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारा गणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है, जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्र जी के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे ॥ 5-6 ॥

॥ दोहा : ॥

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ 15 ॥

भावार्थ:- यदि मुझ पर श्री शिव जी और पार्वती जी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो ॥ 15 ॥

॥ चौपाई : ॥

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी । ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मैं अति पवित्र अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली सरयू नदी की वन्दना करता हूँ । फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्र की ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात्‌ बहुत है) ॥ 1 ॥

सिय निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची । कीरति जासु सकल जग माची ॥ 2 ॥

भावार्थ:- उन्होंने (अपनी पुरी में रहने वाले) सीता जी की निंदा करने वाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोक रहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया । मैं कौशल्या रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है ॥ 2 ॥

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू । बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥
दसरथ राउ सहित सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥ 3 ॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी । करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जहाँ (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए पाले के समान श्री रामचन्द्र जी रूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए । सब रानियों सहित राजा दशरथ जी को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ । अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्मा जी ने भी बड़ाई पाई तथा जो श्री राम के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं ॥ 3-4 ॥

॥ सोरठा : ॥

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद ।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ 16 ॥

भावार्थ:- मैं अवध के राजा श्री दशरथ जी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री राम के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया ॥ 16 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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