Salutations To The Wicked (Khal Vandana) | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- खल वंदना
॥ दोहा : ॥
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ 2 ॥
भावार्थ:- जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फल पा जाते हैं ॥ 2 ॥
॥ चौपाई : ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई ॥ 1 ॥
भावार्थ:- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस । यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है ॥ 1 ॥
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥ 2 ॥
भावार्थ:- वाल्मीकि जी, नारद जी और अगस्त्य जी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है । जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं ॥ 2 ॥
मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥ 3 ॥
भावार्थ:- उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए । वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ 3 ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला ॥ 4 ॥
भावार्थ:- सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है । सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है ॥ 4 ॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥ 5 ॥
भावार्थ:- दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है । (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं । (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।) ॥ 5 ॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥ 6 ॥
भावार्थ:- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते ॥ 6 ॥
॥ दोहा : ॥
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥ 3 (क) ॥
भावार्थ:- मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं । (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं ।) ॥ 3 (क) ॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु । बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ 3 (ख) ॥
भावार्थ:- संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री राम जी के चरणों में मुझे प्रीति दें ॥ 3 (ख) ॥
॥ चौपाई : ॥
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥ 1 ॥
भावार्थ:- अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है ॥ 1 ॥
हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥ जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं । (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं ।) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं । जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है । (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं ।) ॥ 2 ॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥ उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥ 3 ॥
भावार्थ:- जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं । जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है ॥ 3 ॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥ बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥ 4 ॥
भावार्थ:- जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं । मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेष जी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं ॥ 4 ॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥ बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥ 5 ॥
भावार्थ:- पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे ।) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं । फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है । (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है ।) ॥ 5 ॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥ 6 ॥
भावार्थ:- जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है, और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं ॥ 6 ॥
॥ दोहा : ॥
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति । जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥ 4 ॥
भावार्थ:- दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं । यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है ॥ 4 ॥

धन्यवाद !
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