श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Shri Ram-Lakshman ko dekhakar Janaka jee ki Prem Mugdhata

Janakji’s love enchantment after seeing Shri Ram-Lakshman | Shri Ram-Lakshman ko dekhakar Janaka jee ki Prem Mugdhata | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता

॥ चौपाई : ॥

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥ 1 ॥

भावार्थ:- राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया । मुनियों के स्वामी विश्वामित्र जी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया । फिर सारी ब्राह्मण मंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए ॥ 1 ॥

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्र जी ने राजा को बैठाया । उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे ॥ 2 ॥

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं । जब रघुनाथ जी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए । विश्वामित्र जी ने उनको अपने पास बैठा लिया ॥ 3 ॥

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए । सबके नेत्रों में जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे । राम जी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ 215 ॥

भावार्थ:- मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्‍गद्‍ (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा- ॥ 215 ॥

॥ चौपाई : ॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है? ॥ 1 ॥

सहज बिरागरूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ 2 ॥

भावार्थ:- मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर । हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ । हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए ॥ 2 ॥

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥ 3 ॥

भावार्थ:- इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है । मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्‌! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा । आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता ॥ 3 ॥

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जगत में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं । मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर श्री राम जी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं) । (तब मुनि ने कहा-) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं । मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥ 216 ॥

भावार्थ:- ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं । सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है ॥ 216 ॥

॥ चौपाई : ॥

मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥ 1 ॥

भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता । ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं । ॥ 1 ॥

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥ 2 ॥

भावार्थ:- इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती । विदेह (जनकजी) आनंदित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है ॥ 2 ॥

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती) । (प्रेम से) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है । (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले ॥ 3 ॥

सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥ 4 ॥

भावार्थ:- एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया । तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु ।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ 217 ॥

भावार्थ:- रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्र जी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे । उस समय पहरभर दिन रह गया था ॥ 217 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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