श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- पति के अपमान से दु:खी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Sati ka Yogaagni se Jal Jana, Daksha ke yagya ka vidhvans

Sati immolated herself, Daksh’s yagya was destroyed | Sati ka Yogaagni se Jal Jana, Daksha ke yagya ka vidhvans | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस

॥ दोहा : ॥

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि ।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ 62 ॥

भावार्थ:- शिव जी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेव जी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको बिदा कर दिया ॥ 62 ॥

॥ चौपाई : ॥

पिता भवन जब गईं भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥
सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥ 1 ॥

भावार्थ:- भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली । बहिनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं ॥ 1 ॥

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकी जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहूँ न दीख संभु कर भागा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सती जी को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे । तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिव जी का भाग दिखाई नहीं दिया ॥ 2 ॥

तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- तब शिव जी ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया । स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा । पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान्‌ दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ ॥ 3 ॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है । यह समझकर सती जी को बड़ा क्रोध हो आया । माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया- बुझाया ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ 63 ॥

भावार्थ:- परन्तु उनसे शिव जी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ । तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोध भरे वचन बोलीं- ॥ 63 ॥

॥ चौपाई : ॥

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥ 1 ॥

भावार्थ:- हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो । जिन लोगों ने यहाँ शिव जी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे ॥ 1 ॥

संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जहाँ संत, शिव जी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करने वाले) की जीभ काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ ॥ 2 ॥

जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥ 3 ॥

भावार्थ:- त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं । मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है ॥ 3 ॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिव जी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी । ऐसा कहकर सती जी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला । सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ 64 ॥

भावार्थ:- सती का मरण सुनकर शिव जी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे । यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगु जी ने उसकी रक्षा की ॥ 64 ॥

॥ चौपाई : ॥

समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- ये सब समाचार शिव जी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा । उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया ॥ 1 ॥

भै जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिव द्रोही की हुआ करती है । यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया ॥ 2 ॥

सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिव जी के चरणों में अनुराग रहे । इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया ॥ 3 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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