The boon to Rati, a prayer of gods to Shiva, coming of Saptarishis to Parvati | Rati ko varadan, Devtaon ka Shiv ji se Prathana, Saptarishiyo ka Parvati ke paas jana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- रति को वरदान, देवताओं का शिव जी से प्रार्थना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना
॥ चौपाई : ॥
जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥ कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥ 1 ॥
भावार्थ:- जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा । मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा ॥ 1 ॥
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥ देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥ 2 ॥
भावार्थ:- शिव जी के वचन सुनकर रति चली गई । अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ । ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले ॥ 2 ॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥ पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥ 3 ॥
भावार्थ:- फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे । उन सबने शिव जी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिव जी प्रसन्न हो गए ॥ 3 ॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥ कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥ 4 ॥
भावार्थ:- कृपा के समुद्र शिव जी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किस लिए आए हैं? ब्रह्मा जी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्ति वश मैं आपसे विनती करता हूँ ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु । निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ 88 ॥
भावार्थ:- हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं ॥ 88 ॥
॥ चौपाई : ॥
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ॥ कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा ॥ 1 ॥
भावार्थ:- हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें । हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया ॥ 1 ॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥ पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥ 2 ॥
भावार्थ:- हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं । पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए ॥ 2 ॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥ तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साईं ॥ 3 ॥
भावार्थ:- ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्र जी के वचनों को याद करके शिव जी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘ऐसा ही हो । तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके ‘जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो’ ऐसा कहने लगे ॥ 3 ॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥ प्रथम गए जहँ रहीं भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥ 4 ॥
भावार्थ:- उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्मा जी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया । वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वती जी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोद युक्त, आनंद पहुँचाने वाले) वचन बोले- ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ॥ अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ 89 ॥
भावार्थ:- नारद जी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी । अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेव जी ने काम को ही भस्म कर डाला ॥ 89 ॥
मासपारायण, तीसरा विश्राम – Pause 3 of 30 Day Recitation
॥ चौपाई : ॥
सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥ तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥ 1 ॥
भावार्थ:- यह सुनकर पार्वती जी मुस्कुरा कर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा । आपकी समझ में शिव जी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकार युक्त (कामी) ही रहे! ॥ 1 ॥
हमरें जान सदासिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥ जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- किन्तु हमारी समझ से तो शिव जी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, काम रहित और भोग हीन हैं और यदि मैंने शिव जी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है ॥ 2 ॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥ तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥ 3 ॥
भावार्थ:- तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपा निधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे । आपने जो यह कहा कि शिव जी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है ॥ 3 ॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥ गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥ 4 ॥
भावार्थ:- हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा । महादेव जी और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास । चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥ 90 ॥
भावार्थ:- पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए । वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे ॥ 90 ॥

धन्यवाद !
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