Salutations to all living beings as so many images of Shri Ram | Ramrup se Jivmatra ki Vandana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- रामरूप से जीवमात्र की वंदना
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥ 5 ॥
भावार्थ:- पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है । साधु के घर के तोता- मैना राम- राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता- मैना गिन- गिनकर गालियाँ देते हैं ॥ 5 ॥
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥ 6 ॥
भावार्थ:- कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है ॥ 6 ॥
॥ दोहा : ॥
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ 7 (क) ॥
भावार्थ:- ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं । चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं ॥ 7 (क) ॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥7 (ख) ॥
भावार्थ:- महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है । (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया) एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया ॥ 7 (ख) ॥
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ 7 (ग) ॥
भावार्थ:- जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ ॥7 (ग) ॥
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ 7 (घ) ॥
भावार्थ:- देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ । अब सब मुझ पर कृपा कीजिए ॥ 7 (घ) ॥
॥ चौपाई : ॥
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ 1 ॥
भावार्थ:- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ ॥ 1 ॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू ॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाहीं ॥ 2 ॥
भावार्थ:- मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए । मुझे अपने बुद्धि- बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ ॥ 2 ॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राउ ॥ 3 ॥
भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथ जी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री राम जी का चरित्र अथाह है । इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता । मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है ॥ 3 ॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥ 4 ॥
भावार्थ:- मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं । सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे ॥ 4 ॥
जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर दूषन भूषनधारी ॥ 5 ॥
भावार्थ:- जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं । (अर्थात् जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं) ॥ 5 ॥
निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥ 6 ॥
भावार्थ:- रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं ॥ 6 ॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई ॥ सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥ 7 ॥
भावार्थ:- हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं । (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं ।) समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है ॥ 7 ॥

धन्यवाद !
Follow Me On:-
इन्हें भी पढ़े !