Sati ka Daksha Yagya me jana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- सती का दक्ष यज्ञ में जाना
॥ दोहा : ॥
कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाईं । हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं ॥ 1 ॥
भावार्थ:- शिव जी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है । दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है, किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया ॥ 1 ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥ जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं । हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील- स्नेह ही रहेगा और न मान- मर्यादा ही रहेगी ॥ 2 ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥ तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥ 3 ॥
भावार्थ:- यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता ॥ 3 ॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥ 4 ॥
भावार्थ:- शिव जी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ । फिर शिव जी ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी ॥ 4 ॥

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