Vishwamitra’s entry into the sacrificial fire along with Shri Lord Ram-Lakshman | Shri Ram-Lakshman sahit Vishwamitra ka Yagyashaala mein Pravesh | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
॥ दोहा : ॥
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन ।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ॥ 238 ॥
भावार्थ:- अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं ॥ 238 ॥
॥ चौपाई : ॥
नृप सब नखत करहिं उजिआरी । टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥
कमल कोक मधुकर खग नाना । हरषे सकल निसा अवसाना ॥ 1 ॥
भावार्थ:- सब राजा रूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते । रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं ॥ 1 ॥
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे । होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा । दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥ 2 ॥
भावार्थ:- वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे । सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया ॥ 2 ॥
रबि निज उदय ब्याज रघुराया । प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी । प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥ 3 ॥
भावार्थ:- हे रघुनाथ जी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है । आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है ॥ 3 ॥
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने । होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥
कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए । चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥ 4 ॥
भावार्थ:- भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए । फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री राम जी ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए । आकर उन्होंने गुरुजी के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया ॥ 4 ॥
सतानंदु तब जनक बोलाए । कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई । हरषे बोलि लिए दोउ भाई ॥ 5 ॥
भावार्थ:- तब जनक जी ने शतानंद जी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा । उन्होंने आकर जनक जी की विनती सुनाई । विश्वामित्र जी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया ॥ 5 ॥
॥ दोहा : ॥
सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ 239 ॥
भावार्थ:- शतानन्द जी के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचन्द्र जी गुरुजी के पास जा बैठे । तब मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनक जी ने बुला भेजा है ॥ 239 ॥
मासपारायण, आठवाँ विश्राम – Pause 8 of 30 Day Recitation
नवाह्न पारायण, दूसरा विश्राम – Pause 2 of 9 Day Recitation
॥ चौपाई : ॥
सीय स्वयंबरू देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥
लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥ 1 ॥
भावार्थ:- चलकर सीता जी के स्वयंवर को देखना चाहिए । देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं । लक्ष्मण जी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा) ॥ 1 ॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥ 2 ॥
भावार्थ:- इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए । सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया । फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्र जी धनुष यज्ञशाला देखने चले ॥ 2 ॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ॥
चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥ 3 ॥
भावार्थ:- दोनों भाई रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाई, तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए ॥ 3 ॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहु सब काहू ॥ 4 ॥
भावार्थ:- जब जनक जी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा- तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि ।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ 240 ॥
भावार्थ:- उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया ॥ 240 ॥
॥ चौपाई : ॥
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥
गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥ 1 ॥
भावार्थ:- उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए । (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो । सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है । वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं ॥ 1 ॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥ 2 ॥
भावार्थ:- वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों । जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी ॥ 2 ॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥ 3 ॥
भावार्थ:- महान रणधीर (राजा लोग) श्री रामचन्द्र जी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों । कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो ॥ 3 ॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥ 4 ॥
भावार्थ:- छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा । नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप ।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ 241 ॥
भावार्थ:- स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं । मानो श्रृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो ॥ 241 ॥
॥ चौपाई : ॥
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥ 1 ॥
भावार्थ:- विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं । जनक जी के सजातीय (कुटुम्बी) प्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप में) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं ॥ 1 ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥ 2 ॥
भावार्थ:- जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता । योगियों को वे शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे ॥ 2 ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥ 3 ॥
भावार्थ:- हरि भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा । सीता जी जिस भाव से श्री रामचन्द्र जी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता ॥ 3 ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥ 4 ॥
भावार्थ:- उस (स्नेह और सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं । फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है । इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्री रामचन्द्र जी को वैसा ही देखा ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर ।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ 242 ॥
भावार्थ:- सुंदर साँवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के कुमार राज समाज में (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं ॥ 242 ॥
॥ चौपाई : ॥
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥ 1 ॥
भावार्थ:- दोनों मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरने वाली हैं । करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है । उनके सुंदर मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की भी निंदा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं ॥ 1 ॥
चितवनि चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहिं बरनी ॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥ 2 ॥
भावार्थ:- सुंदर चितवन (सारे संसार के मन को हरने वाले) कामदेव के भी मन को हरने वाली है । वह हृदय को बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । सुंदर गाल हैं, कानों में चंचल (झूमते हुए) कुंडल हैं । ठोड़ और अधर (होठ) सुंदर हैं, कोमल वाणी है ॥ 2 ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥ 3 ॥
भावार्थ:- हँसी, चन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है । भौंहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है । (ऊँचे) चौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे हैं) । (काले घुँघराले) बालों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं ॥ 3 ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥ 4 ॥
भावार्थ:- पीली चौकोनी टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियाँ बनाई (काढ़ी) हुई हैं । शंख के समान सुंदर (गोल) गले में मनोहर तीन रेखाएँ हैं, जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा (को बता रही) हैं ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ 243 ॥
भावार्थ:- हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं । उनके कंधे बैलों के कंधे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐंड़ (खड़े होने की शान) सिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भंडार हैं ॥ 243 ॥
॥ चौपाई : ॥
कटि तूनीर पीत पट बाँधें । कर सर धनुष बाम बर काँधें ॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥ 1 ॥
भावार्थ:- कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं । (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं । नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है ॥ 1 ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥ 2 ॥
भावार्थ:- उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए । नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते । जनक जी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए । तब उन्होंने जाकर मुनि के चरण कमल पकड़ लिए ॥ 2 ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥
भावार्थ:- विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई । (मुनि के साथ) दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं ॥ 3 ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥ 4 ॥
भावार्थ:- सबने राम जी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका । मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है (विश्वामित्र- जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला ॥ 4 ॥

धन्यवाद !
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