Ninth chapter of Durga Saptashati Path in Hindi | दुर्गा सप्तशती पाठ – नौवाँ अध्याय

Ninth chapter of Durga Saptashati Path जिसे “निषुम्ब वध” या “निषुम्ब प्रमथन” भी कहते हैं, मां दुर्गा के एक और महत्वपूर्ण लड़ाई की कथा है । इस अध्याय में मां दुर्गा ने राक्षस निशुम्भ का वध किया और देवताओं की सुरक्षा की।

निशुम्भ एक शक्तिशाली राक्षस था जो देवताओं को परेशानी में डाल रहा था । उसने देवताओं के स्वर्गलोक में आक्रमण किया और उनकी शक्तियों का उपहास किया । मां दुर्गा ने उनके खिलाफ लड़ाई का आयोजन किया और निशुम्भ का वध किया ।

इस अध्याय में निशुम्भ के वध से जुड़े महत्वपूर्ण संदेश हैं । यह दिखाता है कि जब दुष्ट और अधर्मी शक्तियों का विस्तार होता है, तो उनके खिलाफ लड़ने के लिए दिव्य शक्तियों का सहारा लेना आवश्यक होता है । मां दुर्गा के द्वारा निशुम्भ का वध करके उन्होंने दिखाया कि दुष्ट शक्तियों का नाश करके धर्म की पुनर्स्थापना संभव है और देवताओं की सुरक्षा हो सकती है ।

Ninth chapter of Durga Saptashati Path में मां दुर्गा की महाकाली रूप की महिमा और दिव्य शक्तियों का वर्णन किया गया है । जो भक्तों कि रक्षा करने के लिए उपयोगी हैं । इसके साथ ही इस अध्याय में मां दुर्गा की विजय कथा भी वर्णित है, जिसमें वह देवी निशुम्भ के साथ युद्ध करती हैं और उन्हें परास्त करती हैं । इससे भक्तों को यह सिख मिलती है कि भगवती की भक्ति से ही समस्त अशक्तियों को परास्त किया जा सकता है ।

Ninth chapter of Durga Saptashati Path भक्तों को शक्ति, साहस और सुरक्षा की प्राप्ति में मदद करता है । यह अध्याय भक्तों के आद्यात्मिक और भौतिक उन्नति को प्रोत्साहित करने का कारण बनता है और उन्हें नवरात्रि व्रत के माध्यम से माँ दुर्गा की उपासना का अवसर प्रदान करता है ।

माँ दुर्गा की स्तुति का सर्वश्रेष्ठ साधन Ninth chapter of Durga Saptashati Path है, यहाँ पर दुर्गा सप्तशती पाठ का नौवाँ अध्याय संस्कृत और हिन्दी भाषा में प्रकाशित किया गया है । आप अपनी इच्छानुसार मनपसंद भाषा में श्री दुर्गा सप्तशती पाठ पढ़ सकते हैं, माँ भगवती की आराधना कर सकते हैं ।

श्रीदुर्गासप्तशती – नवम अध्याय संस्कृत में

निशुम्भ – वध

॥ ध्यानम् ॥

ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः ।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि ॥

“ॐ” राजोवाच ॥ १ ॥

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम ।
देव्याश्‍चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ॥ २ ॥

भूयश्‍चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते ।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्‍चातिकोपनः ॥ ३ ॥

ऋषिरुवाच ॥ ४ ॥

चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते ।
शुम्भासुरो निशुम्भश्‍च हतेष्वन्येषु चाहवे ॥ ५ ॥

हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन् ।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया ॥ ६ ॥

तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्‍वयोश्‍च महासुराः ।
संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः ॥ ७ ॥

आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः ।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ॥ ८ ॥

ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः ।
शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ॥ ९ ॥

चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः ।
ताडयामास चाङ्‌गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्‍वरौ ॥ १० ॥

निशुम्भो निशितं खड्‌गं चर्म चादाय सुप्रभम् ।
अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ॥ ११ ॥

ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम् ।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् ॥ १२ ॥

छिन्ने चर्मणि खड्‌गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः ।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम् ॥ १३ ॥

कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः ।
आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् ॥ १४ ॥

आविध्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति ।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ॥ १५ ॥

ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्‌गवम् ।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ॥ १६ ॥

तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे ।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ॥ १७ ॥

स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः ।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः ॥ १८ ॥

तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्‌खमवादयत् ।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्‍चकारातीव दुःसहम् ॥ १९ ॥

पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च ।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ॥ २० ॥

ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः ।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ॥ २१ ॥

ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत् ।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः ॥ २२ ॥

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह ।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ॥ २३ ॥

दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा ।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः ॥ २४ ॥

शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा ।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ॥ २५ ॥

सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम् ।
निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ॥ २६ ॥

शुम्भमुक्ताञ्छरान्‍देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान् ।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥

ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम् ।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह ॥ २८ ॥

ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः ।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा ॥ २९ ॥

पुनश्‍च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्‍वरः ।
चक्रायुधेन दितिजश्‍छादयामास चण्डिकाम् ॥ ३० ॥

ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी ।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्‍च तान् ॥ ३१ ॥

ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम् ।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः ॥ ३२ ॥

तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका ।
खड्‌गेन शितधारेण स च शूलं समाददे ॥ ३३ ॥

शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम् ।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ॥ ३४ ॥

भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः ।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ॥ ३५ ॥

तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः ।
शिरश्चिच्छेद खड्‌‍गेन ततोऽसावपतद्भुवि ॥ ३६ ॥

ततः सिंहश्‍चखादोग्रं दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान् ।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ॥ ३७ ॥

कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः ।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः ॥ ३८ ॥

माहेश्‍वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे ।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि ॥ ३९ ॥

खण्डं खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः ।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ॥ ४० ॥

केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात् ।
भक्षिताश्‍चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ॥ ॐ ॥ ४१ ॥

॥ श्री मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः सम्पूर्णं ॥


Ninth chapter of Durga Saptashati Path

दुर्गा सप्तशती पाठ- नवाँ अध्याय हिन्दी में

निशुम्भ – वध

राजा ने कहा- हे ऋषिराज ! आपने रक्तबीज के वध से संबंध रखने वाला वृतान्त मुझे सुनाया । अब मैं रक्तबीज के मरने के पश्चात क्रोध में भरे हुए शुम्भ व निशुम्भ ने जो कर्म किया, वह सुनना चाहता हूँ । महर्षि मेधा ने कहा- रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना का इस प्रकार सर्वनाश होते देखकर निशुम्भ देवी पर आक्रमण करने के लिए दौड़ा, उसके साथ बहुत से बड़े- बड़े असुर देवी को मारने के वास्ते दौड़े और महापराक्रमी शुम्भ अपनी सेना सहित चण्डिका को मारने के लिए बढ़ा,

फिर शुम्भ और निशुम्भ का देवी से घोर युद्ध होने लगा और वह दोनो असुर इस प्रकार देवी पर बाण फेंकने लगे जैसे मेघों से वर्षा हो रही हो, उन दोनो के चलाए हुए बाणों को देवी ने अपने बाणों से काट डाला और अपने शस्त्रों की वर्षा से उन दोनो दैत्यों को चोट पहुँचाई, निशुम्भ ने तीक्ष्ण तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के सिंह पर आक्रमण किया, अपने वाहन को चोट पहुँची देखकर देवी ने अपने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की तलवार व ढाल दोनो को ही काट डाला ।

तलवार और ढाल कट जाने पर निशुम्भ ने देवी पर शक्ति से प्रहार किया । देवी ने अपने चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए । फिर क्या था दैत्य मारे क्रोध के जल भुन गया और उसने देवी को मारने के लिए उसकी ओर शूल फेंका, किन्तु देवी ने अपने मुक्के से उसको चूर- चूर कर डाला, फिर उसने देवी पर गदा से प्रहार किया, देवी ने त्रिशूल से गदा को भस्म कर डाला, इसके पश्चात वह फरसा हाथ में लेकर देवी की ओर लपका ।

देवी ने अपने तीखे वाणों से उसे धरती पर सुला दिया । अपने पराक्रमी भाई निशुम्भ के इस प्रकार से मरने पर शुम्भ क्रोध में भरकर देवी को मारने के लिये दौड़ा । वह रथ में बैठा हुआ उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी आठ बड़ी- बड़ी भुजाओं से सारे आकाश को ढके हुए था । शुम्भ को आते देख कर देवी ने अपना शंख बजाया और धनुष की टंकोर का भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया, साथ ही अपने घण्टे के शब्द से जो कि सम्पूर्ण दैत्य सेना के तेज को नष्ट करने वाला था सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त कर दिया ।

इसके पश्चात देवी के सिंह ने भी अपनी दहाड़ से जिसे सुन बड़े- बड़े बलवानों ला मद चूर- चूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को पूरित कर दिया, फिर आकाश में उछलकर काली ने अपने दाँतों तथा हाथों को पृथ्वी पर पटका, उसके ऎसा करने से ऎसा शब्द हुआ,

जिससे कि उससे पहले के सारे शब्द शान्त हो गये, इसके पश्चात शिवदूती ने असुरों के लिए भय उत्पन्न करने वाला अट्टहास किया जिसे सुनकर दैत्य थर्रा उठे और शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ, फिर अम्बिका ने उसे अरे दुष्ट ! खड़ा रह !!, खड़ा रह !!! कहा तो आकाश से सभी देवता ‘जय हो, जय हो’ बोल उठे । शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त एक अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी जिसे आते देखकर देवी ने अपनी महोल्का नामक शक्ति से काट डाला ।

हे राजन् ! फिर शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक व्याप्त हो गये और उसकी प्रतिध्वनि से ऎसा घोर शब्द हुआ, जिसने इससे पहले के सब शब्दों को जीत लिया । शुम्भ के छोड़े बाणों को देवी ने और देवी के छोड़े बाणों को शुम्भ ने अपने बाणों से काट सैकड़ो और हजारों टुकड़ो में परिवर्तित कर दिया ।

इसके पश्चात जब चण्डीका ने क्रोध में भर शुम्भ को त्रिशूल से मारा तो वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, जब उसकी मूर्छा दुर हुई तो वह धनुष लेकर आया और अपने बाणों से उसने देवी काली तथा सिंह को घायल कर दिया, फिर उस राक्षस ने दस हजार भुजाएँ धारण करके चक्रादि आयुधों से देवी को आच्छादित कर दिया, तब भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट डाला, यह देखकर निशुम्भ हाथ में गदा लेकर चण्डिका को मारने के लिए दौडा, उसके आते ही देवी ने तीक्ष्ण धार वाले ख्ड्ग से उसकी गदा को काट डाला ।

उसने फिर त्रिशूल हाथ में ले लिया, देवताओं को दुखी करने वाले निशुम्भ त्रिशूल हाथ में लिए हुए आता देखकर चण्डिका ने अपने शूल से उसकी छाती पर प्रहार किया और उसकी छाती को चीर डाला, शूल विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती में से एक उस जैसा ही महा पराक्रमी दैत्य ठहर जा ! ठहर जा !! कहता हुआ निकला । उसको देखकर देवी ने बड़े जोर से ठहाका लगाया ।

अभी वह निकलने भी न पाया था किन उसका सिर अपनी तलवार से काट डाला । सिर के कटने के साथ ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । तदनन्तर सिंह दहाड़- दहाड़ कर असुरों का भक्षण करने लगा और काली शिवदूती भी राक्षसों का रक्त पीने लगी । कौमारी की शक्ति से कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए । ब्रह्माजी के कमण्डल के जल से कितने ही असुर समाप्त हो गये ।

कई दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और बाराही के प्रहारों से छिन्न- भिन्न होकर धराशायी हो गये । वैष्णवी ने भी अपने चक्र से बड़े- बड़े महा पराक्रमियों का कचमूर निकालकर उन्हें यमलोक भेज दिया और ऎन्द्री से कितने ही महाबली राक्षस टुकड़े- टुकड़े हो गये । कई दैत्य मारे गए, कई भाग गए, कितने ही काली शिवदूती और सिंह ने भक्षण कर लिए ।


परानाम

धन्यवाद !


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