Eleventh chapter of Durga Saptashati Path in Hindi | दुर्गा सप्तशती पाठ – ग्यारहवाँ अध्याय

Eleventh chapter of Durga Saptashati Path मे जब देवी के द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता अग्नि को आगे कर के उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे । उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने के कारण उनके मुख कमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं । 

देवताओं ने कहा- हे शरणागतों की पीड़ा दूर करने वाली देवी ! हमपर प्रसन्न होओ । हे सम्पूर्ण जगत की माता ! तुम प्रसन्न होओ । विन्ध्येश्वरी ! विश्व की रक्षा करो क्योंकि देवी ! तुम्ही इस चर और अचर की ईश्वरी हो । 

माँ दुर्गा की स्तुति का सर्वश्रेष्ठ साधन Eleventh chapter of Durga Saptashati Path है, यहाँ पर दुर्गा सप्तशती पाठ का ग्यारहवाँ अध्याय संस्कृत और हिन्दी भाषा में प्रकाशित किया गया है । आप अपनी इच्छानुसार मनपसंद भाषा में श्री दुर्गा सप्तशती पाठ पढ़ सकते हैं, माँ भगवती की आराधना कर सकते हैं । 

श्रीदुर्गासप्तशती – एकादश अध्याय संस्कृत में

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान

॥ ध्यानम् ॥

ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्‌गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखीं वरदाङ्‌कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥

“ॐ” ऋषिरुवाच ॥ १ ॥

देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम् ।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्वि
काशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः ॥ २ ॥

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।
प्रसीद विश्‍वेश्‍वरि पाहि विश्‍वं
त्वमीश्‍वरी देवि चराचरस्य ॥ ३ ॥

आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्‌घ्यवीर्ये ॥ ४ ॥

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्‍वस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्त्वं
वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥ ५ ॥

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्का
ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥ ६ ॥

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी ।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥ ७ ॥

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते ।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि ।
विश्‍वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥

सर्वमङ्‌गलमंङ्‌गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १० ॥

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि ।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११ ॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि ।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १३ ॥

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि ।
माहेश्‍वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥

मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे ।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १५ ॥

शङ्‌खचक्रगदाशाङ्‌र्गगृहीतपरमायुधे ।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे ।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १७ ॥

नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे ।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १८ ॥

किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले ।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १९ ॥

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले ।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २० ॥

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे ।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २१ ॥

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे ।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि ।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २३ ॥

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ २४ ॥

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् ।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् ।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ २६ ॥

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् ।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ॥ २७ ॥

असुरासृग्वसापङ्‌कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः ।
शुभाय खड्‌गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ॥ २८ ॥

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ २९ ॥

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ॥ ३० ॥

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्‍वम् ॥ ३१ ॥

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्‍च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्‍वम् ॥ ३२ ॥

विश्‍वेश्‍वरि त्वं परिपासि विश्‍वं
विश्‍वात्मिका धारयसीति विश्‍वम् ।
विश्‍वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्‍वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ ३३ ॥

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः ।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्‍च महोपसर्गान् ॥ ३४ ॥

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्‍वार्तिहारिणि ।
त्रैलोक्यवासिनामीड्‍ये लोकानां वरदा भव ॥ ३५ ॥

देव्युवाच ॥ ३६ ॥

वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम् ॥ ३७ ॥

देवा ऊचुः ॥ ३८ ॥

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्‍वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ३९ ॥

देव्युवाच ॥ ४० ॥

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्‍चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥ ४ १ ॥

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२ ॥

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले ।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान् ॥ ४३ ॥

भक्षयन्त्याश्‍च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्महासुरान् ।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः ॥ ४४ ॥

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः ।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम् ॥ ४५ ॥

भूयश्‍च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि ।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा ॥ ४६ ॥

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन् ।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः ॥ ४७ ॥

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः ।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ॥ ४८ ॥

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि ।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम् ॥ ४९ ॥

दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ।
पुनश्‍चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले ॥ ५० ॥

रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात् ।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ॥ ५१ ॥

भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ॥ ५२ ॥

तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्‌पदम् ।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ॥ ५३ ॥

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः ।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ॥ ५४ ॥

तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ॥ ॐ ॥ ५५ ॥

॥ श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये नारायणिस्तुतिर्नाम एकादशोऽध्यायः सम्पूर्णं ॥


Eleventh chapter of Durga Saptashati Path

दुर्गा सप्तशती पाठ – ग्यारहवाँ अध्याय हिन्दी में 

देवताओं का देवी की स्तुति करना और देवी का देवताओं को वरदान देना

महर्षि मेधा कहते हैं- देवी के द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता अग्नि को आगे कर के उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे । उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने के कारण उनके मुख कमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं । देवताओं ने कहा- हे शरणागतों की पीड़ा दूर करने वाली देवी ! हमपर प्रसन्न होओ । हे सम्पूर्ण जगत की माता ! तुम प्रसन्न होओ । विन्ध्येश्वरी ! विश्व की रक्षा करो क्योंकि देवी ! तुम्ही इस चर और अचर की ईश्वरी हो । 

हे देवी ! तुम इस सम्पूर्ण जगत की एकमात्र आधार रूप; क्योंकि तुम पृथ्वी रूप में भी स्थित हो और अत्यन्त पराक्रम वाली देवी हो, तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करती हो । तुम अनन्त बल सम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो । इस विश्व की कारण भूता परा माया हो । देवि ! तुम विष्णु की शक्ति हो और विश्व की बीज परममाया हो और तुमने ही इस सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है । तुम्हारी प्रसन्न होने पर ही यह पृथ्वी मोक्ष को प्राप्त होती है ।

हे देवी ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न- भिन्न स्वरुप हैं । इस जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्त्तियाँ हैं । जगदम्ब ! एक मात्र तुमने ही इस जगत को व्याप्त कर रखा है । तुम्हारी स्तुति किस प्रकार हो सकती है क्योंकि तुम तो स्तवन करने योग्य पदाथों से परे एवं परा वाणी हो । तुम परमबुद्धि रूप हो और सम्पूर्ण प्राणिरूप स्वर्ग और मुक्ति देने वाली हो । 

अत: इसी रूप में तुम्हारी स्तुति की गई है । तुम्हारी स्तुति के लिए इससे बढ़कर और क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, सम्पूर्ण जनों के हृदय में बुद्धिरुप होकर निवास करने वाली, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हे नारायणी देवी ! तुमको नमस्कार है । कला, काष्ठा आदि रुप से अवस्थाओं को परिवर्तन की ओर ले जाने वाली तथा प्राणियों का अन्त करने वाली नारायणी तुमको नमस्कार है ।

हे नारायणी ! सम्पूर्ण मंगलो के मंगलरुप वाली ! हे शिवे, हे सम्पूर्ण प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली ! हे शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी ! तुमको नमस्कार है, सृष्टि, स्थिति तथा संहारव की शक्तिभूता, सनातनी देवी ! गुणों का आधार तथा सर्व सुखमयी नारायणी तुमको नमस्कार है । 

हे शरण में आये हुए शरणागतों दीन दुखियों की रक्षा में तत्पर, सम्पूर्ण पीड़ाओं को हरने वाली हे नारायणी ! तुमको नमस्कार है । हे नारायणी ! तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती हो तथा कुश से अभिमंत्रित जल छिड़कती रहती हो, तुम्हें नमस्कार है, माहेश्वरी रूप से त्रिशूल, चन्द्रमा और सर्पों को धारण करने वाली हे महा वृषभ वाहन वाली नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है ।

मोरों तथा मुक्कुटों से घिरी रहने वाली, महाशक्ति को धारण करने वाली हे कौमारी रूपधारिणी ! निष्पाप नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है । हे शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्गधनुषरूप उत्तम आयुधों को धारण करने वाली वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणी ! तुम प्रसन्न होओ, तुम्हें नमस्कार है । हे दाँतों पर पृथ्वी धारण करने वाली वाराह रूपिणी कल्याणमयी नारायणी ! तुम्हे नमस्कार है । हे उग्र नृसिंह रुप से दैत्यों को मारने वाली, त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहने वाली नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है । 

हे मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र धारण करने वाली, सहस्त्र नेत्रों के कारण उज्जवल, वृत्रासुर के प्राण हरने वाली ऎन्द्रीशक्ति, हे नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है, हे शिवदूती स्वरुप से दैत्यों के महामद को नष्ट करने वाली, हे घोररुप वाली ! हे महाशब्द वाली ! हे नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है ।

दाढ़ो के कारण विकराल मुख वाली, मुण्डमाला से विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है । हे लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रि तथा महाविद्या रूपा नारायणी ! तुमको नमस्कार है । हे मेधा, सरस्वती, सर्वोत्कृष्ट, ऎश्वर्य रूपिणी, पार्वती, महाकाली, नियन्ता तथा ईशरूपिणी नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है । 

हे सर्वस्वरूप सर्वेश्वरी, सर्वशक्तियुक्त देवी ! हमारी भय से रक्षा करो, तुम्हे नमस्कार है । हे कात्यायनी ! तीनों नेत्रों से भूषित यह तेरा सौम्यमुख सब तरह के डरों से हमारी रक्षा करे, तुम्हें नमसकर है । हे भद्रकाली ! ज्वालाओं के समान भयंकर, अति उग्र एवं सम्पूर्ण असुरों को नष्ट करने वाला तुम्हारा त्रिशूल हमें भयों से बचावे, तुमको नमस्कार है । 

हे देवी ! जो अपने शब्द से इस जगत को पूरित कर के दैत्यों के तेज को नष्ट करता है वह आपका घण्टा इस प्रकार हमारी रक्षा करे जैसे कि माता अपने पुत्रों की रक्षा करती है । हे चण्डिके ! असुरों के रक्त और चर्बी से चर्चित जो आपकी तलवार है, वह हमारा मंगल करे ! हम तुमको नमस्कार करते हैं ।

हे देवी ! तुम जब प्रसन्न होती हो तो सम्पूर्ण रोगों को नष्ट कर देती हो और जब रूष्ट हो जाती हो तो सम्पूर्ण वांछित कामनाओं को नष्ट कर देती हो और जो मनुष्य तुम्हारी शरण में जाते हैं उन पर कभी विपत्ति नहीं आती । बल्कि तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को आश्रय देने योग्य हो जाते हैं । 

अनेक रूपों से बहुत प्रकार की मूर्तियों को धारण कर के इन धर्मद्रोही असुरों का तुमने संहार किया है, वह तुम्हारे सिवा कौन कर सकता था? चतुर्दश विद्याएँ, षटशास्त्र और चारों वेद तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशित हैं । उनमें तुम्हारा ही वर्णन है और जहाँ राक्षस, विषैले सर्प शत्रुगण हैं वहाँ और समुद्र के बीच में भी तुम साथ रह कर इस विश्व की रक्षा करती हो ।

हे विश्वेश्वरि ! तुम विश्व का पालन करने वाली विश्व रूपा हो इसलिए सम्पूर्ण जगत को धारण करती हो । इसीलिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी वन्दनीया हो । जो भक्तिपूर्वक तुमको नमस्कार करते हैं, वह विश्व को आश्रय देने वाले बन जाते हैं । हे देवी ! तुम प्रसन्न होओ और असुरों को मार कर जिस प्रकार हमारी रक्षा की है, ऎसे ही हमारे शत्रुओं से सदा हमारी रक्षा करती रहो ।

सम्पूर्ण जगत के पाप नष्ट कर दो और पापों तथा उनके फल स्वरूप होने वाली महामारी आदि बड़े- बड़े उपद्रवों को शीघ्र ही दूर कर दो । विश्व की पीड़ा को हरने वाली देवी ! शरण में पड़े हुओं पर प्रसन्न होओ । त्रिलोक निवासियों की पूजनीय परमेश्वरी हम लोगों को वरदान दो ।

देवी ने कहा- हे देवताओं ! मैं तुमको वर देने को तैयार हूँ । आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा वर माँग लो मैं तुमको दूँगी । देवताओं ने कहा- हे सर्वेश्वरी ! त्रिलोकी के निवासियों की समस्त पीड़ाओं को तुम इसी प्रकार हरती रहो और हमारे शत्रुओं को इसी प्रकार नष्ट करती रहो । 

देवी ने कहा- वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें युग में दो और महा असुर शुम्भ और निशुम्भ उत्पन्न होगें । उस समय मैं नन्द गोप के घर से यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर विन्ध्याचल पर्वत पर शुम्भ और निशुम्भ का संहार करूँगी, फिर अत्यन्त भयंकर रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण हो कर मैं वैप्रचित्ति नामक दानवों का नाश करूँगी । 

उन भयंकर महा असुरों को भक्षण करते समय मेरे दाँत अनार पुष्प के समान लाल होगें, इसके पश्चात स्वर्ग में देवता और पृथ्वी पर मनुष्य मेरी स्तुति करते हुये मुझे रक्तदन्तिका कहेगें फिर जब सौ वर्षों तक वर्षा न होगी तो मैं ऋषियों के स्तुति करने पर आयोनिज नाम से प्रकट होऊँगी और अपने सौ नेत्रों से ऋषियों की ओर देखूँगी ।

अत: मनुष्य शताक्षी नाम से मेरा कीर्तन करेगें । उसी समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए प्राणों की रक्षा करने वाले शाकों द्वारा सब प्राणियो का पालन करूँगी और तब इस पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से विख्यात होऊँगी और इसी अवतार में मैं दुर्ग नामक महा असुर का वध करूँगी और इससे मैं दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध होऊँगी । 

इसके पश्चात जब मैं भयानक रूप धारण कर के हिमालय निवासी ऋषियों महर्षियों की रक्षा करूँगी तब भीमा देवी के नाम से मेरी ख्याति होगी और जब फिर अरुण नामक असुर तीनों लोकों को पीड़ित करेगा तब मैं असंख्य भ्रमरों का रूप धारण कर के उस महा दैत्य का वध करूँगी तब स्वर्ग में देवता और मृत्युलोक में मनुष्य मेरी स्तुति करते हुए मुझे भ्रामरी नाम से पुकारेगें । इस प्रकार जब- जब पृथ्वी राक्षसों से पीड़ित होगी तब- तब मैं अवतरित हो कर शत्रुओं का नाश करूँगी ।


परानाम

धन्यवाद !


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