॥ Durga Kavach in Sanskrit॥
(Durga Kavach) दुर्गा देवी कवच का पाठ अत्यंत ही फलदाई है । इस पाठ को करने से मां अपने भक्तों का सभी कष्ट दूर कर देती है और उन्हें सुख समृद्धि प्रदान करती है ।
॥ माँ दुर्गा देवी कवच हिंदी में ॥
॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
॥ मार्कण्डेय उवाच ॥
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥
मार्कण्डेय जी ने कहा हे पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है ।
और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये ।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम् ।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने ॥ 2 ॥
ब्रह्मन् ! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण
प्राणियों का उपकार करनेवाला है । महामुने ! उसे श्रवण करो ।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ 3 ॥
प्रथम नाम शैलपुत्री है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है । तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे
प्रसिद्ध है । चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा कहते हैं ।
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ 4 ॥
पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है । देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं ।
सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है ।
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ 5 ॥
नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है । ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ।
ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ।
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ 6 ॥
जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस
प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता ।
न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही ॥ 7 ॥
युद्ध समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती ।
उनके शोक, दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती ।
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ॥ 8 ॥
जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है ।
देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो ।
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ 9 ॥
चामुण्डादेवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं । वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं । ऐन्द्री का
वाहन ऐरावत हाथी है । वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं ।
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ 10 ॥
माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं । कौमारी का मयूर है । भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी
कमल के आसन पर विराजमान हैं, और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं ।
श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ 11 ॥
वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है । ब्राह्मी देवी हंस पर
बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूिषत हैं ।
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता: ॥ 12 ॥
इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं । इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं ।
जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं ।
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला: ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ 13 ॥
ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी
दिखाई देती हैं । ये शङ्ख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल ।
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ 14 ॥
खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त, त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष
आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथ में धारण करती हैं ।
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै ॥ 15 ॥
दैत्यों के शरीर का नाश करना, भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का
कल्याण करना यही उनके शस्त्र -धारण का उद्देश्य है ।
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ 16॥
महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली
देवी तुम महान् भय का नाश करने वाली हो, तुम्हें नमस्कार है ।
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ 17॥
तुम्हारी और देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो।
पूर्व दिशा में ऐन्द्री इन्द्रशक्ति)मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति |
दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी ॥ 18॥
दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे । पश्चिम दिशा में
वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे ।
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥ 19॥
उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे । ब्रह्माणि! तुम
ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे ।
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना ।
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः ॥ 20॥
इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा
करे । जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे ।
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ 21॥
वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे । उद्योतिनी शिखा
की रक्षा करे । उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे ।
मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ॥ 22॥
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे ।
भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे ।
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥ 23॥
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे ।
भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे ।
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ 24॥
नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करे ।
नीचे के ओंठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे ।
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥ 25॥
कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे ।
चित्रघण्टा गले की घाँटी और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे ।
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी ॥ 26॥
कामाक्षी ठोढी की और सर्वमङ्गला मेरी वाणी की रक्षा करे ।
भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करे ।
नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥ 27॥
कण्ठ के बाहरी भाग में नील ग्रीवा और कण्ठ की नली में नल कूबरी रक्षा करे ।
दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे ।
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ 28॥
दोनों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे ।
शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे । कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करे ।
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ 29॥
महादेवी दोनों स्तनों की और शोक विनाशिनी देवी मन की रक्षा करे ।
ललिता देवी हृदय में और शूल धारिणी उदर में रहकर रक्षा करे ।
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी ॥ 30 ॥
नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे ।
पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे ।
कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ 31 ॥
भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे । सम्पूर्ण कामनाओं
को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे ।
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी ॥ 32॥
नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे ।
श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे ।
नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ 33 ॥
अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी
केशों की रक्षा करे । रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे ।
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ 34 ॥
पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे ।
आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे ।
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ॥ 35 ॥
मूलाधार आदि कमल -कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे ।
नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे । जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता,
वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे ।
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ 36 ॥
ब्रह्माणी! आप मेरे वीर्य की रक्षा करें । छत्रेश्वरी छाया की तथा
धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की रक्षा करे ।
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ 37 ॥
हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे ।
कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे ।
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ 38 ॥
रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे ।
तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे ।
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी यशः ।
कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ 39 ॥
वाराही आयु की रक्षा करे । वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी चक्र धारण
करने वाली देवी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा करे ।
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ 40 ॥
इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें । चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो ।
महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे ।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ 41 ॥
मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे । राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे ।
तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे ।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी ॥ 42 ॥
देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, रक्षा से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा
सुरक्षित हो । क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो ।
पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति ॥ 43 ॥
यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाए ।
कवच का पाठ करके ही यात्रा करे । कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित
मनुष्य जहाँ -जहाँ भी जाता है, वहाँ -वहाँ उसे धन -लाभ होता है ।
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥ 44 ॥
सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है ।
वह जिस -जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस -उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है ।
वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है ।
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ 45 ॥
कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है । युद्ध में उसकी
पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है ।
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ 46 ॥
देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है । जो प्रतिदिन नियम पूर्वक तीनों संध्याओं के समय
श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है । उसे दैवी कला प्राप्त होती है ।
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः ॥ 47 ॥
वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता । इतना ही नहीं,
वह अपमृत्यु रहित हो । सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है ।
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ॥ 48 ॥
मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं ।
कनेर, भाँग, अफीम, धतूरे आदि का स्थावर विष, साँप और बिच्छू आदि के काटने
से चढ़ा हुआ जङ्गम विष । तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम
विष -ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं, उनका कोई असर नहीं होता ।
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥ 49 ॥
इस पृथ्वी पर मारण -मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं । तथा इस प्रकार के मन्त्र -यन्त्र होते हैं ।
वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं ।
ये ही नहीं, पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता, आकाशचारी देव विशेष, जल के सम्बन्ध
से प्रकट होने वाले गण, उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्न कोटि के देवता ।
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला ॥ 50 ॥
अपने जन्म से साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला ( कण्ठ माला आदि ),
डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ ।
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा: ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥ 51 ॥
ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल,
कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी, ।
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ।
मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम् ॥ 52 ॥
हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं ।
कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान वृद्धि प्राप्ति होती है ।
यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है ।
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले ।
जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा ॥ 53 ॥
कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से
साथ -साथ वृद्धि को प्राप्त होता है । जो पहले कवच का पाठ
करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, ।
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ 54 ॥
उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है ।
तब तक यहाँ पुत्र -पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है ।
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥ 55 ॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ ॐ ॥ ॥ 56 ॥
देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को
प्राप्त होता है । जो देवतोओं के लिए भी दुर्लभ है । वह सुन्दर दिव्य रूप
धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है ।
॥ इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ॥

धन्यवाद !
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