श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Rajaon se Dhanush na Uthana, Janak ki Nirashajanak Vachan

Bows do not rise from kings, Disappointing words of King Janak | Rajaon se Dhanush na Uthana, Janak ki Nirashajanak Vachan | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्ट देवन्ह सिर नाई ॥ 3 ॥

भावार्थ:- प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे । जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए । कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले ॥ 3 ॥

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥ 4 ॥

भावार्थ:- वे तमककर (बड़े ताव से) शिव जी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं । जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ 250 ॥

भावार्थ:- वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है ॥ 250 ॥

॥ चौपाई : ॥

भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥ 1 ॥

भावार्थ:- तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता । शिव जी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता ॥ 1 ॥

सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥
कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सब राजा उपहास के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है । कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए ॥ 2 ॥

श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥ 3 ॥

भावार्थ:- राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे । राजाओं को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे ॥ 3 ॥

दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनिहम जो पनु ठाना ॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए । देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरतिअति कमनीय ।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ 251 ॥

भावार्थ:- परन्तु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं ॥ 251 ॥

॥ चौपाई : ॥

कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- कहिए, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी शंकर जी का धनुष नहीं चढ़ाया । अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका ॥ 1 ॥

अब जनि कोउ भाखे भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥ 2 ॥

भावार्थ:- अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो । मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई । अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं ॥ 2 ॥

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥ 3 ॥

भावार्थ:- यदि प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे । यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता ॥ 3 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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