श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- भगवान का वरदान और राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Bhagawan ka waradan tatha raja dasharath ka putraesit yagy

God’s blessing and King Dasharatha’s yagya to get a son | Bhagawan ka waradan tatha raja dasharath ka putraesit yagy | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- भगवान का वरदान और राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ

॥ दोहा : ॥

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह ।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ 186 ॥

भावार्थ:- देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेह युक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई ॥ 186 ॥

॥ चौपाई : ॥

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत । तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा ॥ 1 ॥

कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था । मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ । वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं ॥ 2 ॥

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥ 3 ॥

भावार्थ:- उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा । नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा ॥ 3 ॥

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ 4 ॥

भावार्थ:- मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा । हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ । आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए । उनका हृदय शीतल हो गया ॥ 4 ॥

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥ 5 ॥

भावार्थ:- तब ब्रह्मा जी ने पृथ्वी को समझाया । वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ गया ॥ 5 ॥

॥ दोहा : ॥

निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ 187 ॥

भावार्थ:- देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गए ॥ 187 ॥

॥ चौपाई : ॥

गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सब देवता अपने-अपने लोक को गए । पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली । ब्रह्मा जी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की ॥ 1 ॥

बनचर देह धरी छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की । उनमें अपार बल और प्रताप था । सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे । वे धीर बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे ॥ 2 ॥

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- वे (वानर) पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए । यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा । अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया था ॥ 3 ॥

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति भति सारँगपानी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है । वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे । उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत ।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ 188 ॥

भावार्थ:- उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं । वे (बड़ी) विनीत और पति के अनुकूल (चलने वाली) थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था ॥ 188 ॥

॥ चौपाई : ॥

एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ 1 ॥

भावार्थ:- एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है । राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की ॥ 1 ॥

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया । गुरु वशिष्ठ जी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे ॥ 2 ॥

सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ 3 ॥

भावार्थ:- वशिष्ठ जी ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया । मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए ॥ 3 ॥

॥ दोहा : ॥

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ 4 ॥

भावार्थ:- (और दशरथ से बोले-) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया । हे राजन्‌! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो ॥ 4 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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