श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- श्री सीताराम धाम परिकर वंदना | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Shri Sitaram Dham Parikkar Vandana

Salutations to the companions of Ram Sita | Shri Sitaram Dham Parikkar Vandana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री सीताराम धाम परिकर वंदना

॥ चौपाई : ॥

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू । जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनक जी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री राम जी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्र जी को देखते ही वह प्रकट हो गया ॥ 1 ॥

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना । जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥
राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥ 2 ॥

भावार्थ:- (भाइयों में) सबसे पहले मैं श्री भरत जी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री राम जी के चरण कमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता ॥ 2 ॥

बंदउँ लछिमन पद जल जाता । सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥
रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जस जाका ॥ 3 ॥

भावार्थ:- मैं श्री लक्ष्मण जी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं । श्री रघुनाथ जी की कीर्ति रूपी विमल पताका में जिनका (लक्ष्मण जी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने वाले) दंड के समान हुआ ॥ 3 ॥

सेष सहस्रसीस जग कारन । जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेष जी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रा नंदन श्री लक्ष्मण जी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें ॥ 4 ॥

रिपुसूदन पद कमल नमामी । सूर सुसील भरत अनुगामी ॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥ 5 ॥

भावार्थ:- मैं श्री शत्रुघ्न जी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्री भरत जी के पीछे चलने वाले हैं । मैं महावीर श्री हनुमान जी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्र जी ने स्वयं (अपने मुख से) वर्णन किया है ॥ 5 ॥

॥ सोरठा : ॥

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ 17 ॥

भावार्थ:- मैं पवन कुमार श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्नि रूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री राम जी निवास करते हैं ॥ 17 ॥

॥ चौपाई : ॥

कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥ 1 ॥

भावार्थ:- वानरों के राजा सुग्रीव, रीछों के राजा जाम्बवान, राक्षसों के राजा विभीषण और अंगद आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीर में भी श्री रामचन्द्र जी को प्राप्त कर लिया ॥ 1 ॥

रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे बिनु काम राम के चेरे ॥ 2 ॥

भावार्थ:- पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री राम जी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री राम जी के निष्काम सेवक हैं ॥ 2 ॥

सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- शुकदेव जी, सनकादि, नारद-मुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए ॥ 3 ॥

जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की ॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥ 4 ॥

भावार्थ:- राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्र जी की प्रियतमा श्री जानकी जी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ ॥ 4 ॥

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥
राजीवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुखदायक ॥ 5 ॥

भावार्थ:- फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमल नयन, धनुष- बाण धारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान श्री रघुनाथ जी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ ॥ 5 ॥

॥ दोहा : ॥

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ 18 ॥

भावार्थ:- जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीता राम जी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं ॥ 18 ॥

॥ चौपाई : ॥

बंदउँ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथ जी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है । वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूप है । वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भंडार है ॥ 1 ॥

महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिव जी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेश जी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं ॥ 2 ॥

जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेईं पिय संग भवानी ॥ 3 ॥

भावार्थ:- आदि कवि श्री वाल्मीकि जी राम नाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा,मरा’) जपकर पवित्र हो गए । श्री शिव जी के इस वचन को सुनकर कि एक राम नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वती जी सदा अपने पति (श्री शिव जी) के साथ राम नाम का जप करती रहती हैं ॥ 3 ॥

हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को ॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ 4 ॥

भावार्थ:- नाम के प्रति पार्वती जी के हृदय की ऐसी प्रीति देख कर श्री शिव जी हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वती जी को अपना भूषण बना लिया । (अर्थात्‌ उन्हें अपने अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया) । नाम के प्रभाव को श्री शिव जी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया ॥ 4 ॥


परानाम

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