श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- शिव जी द्वारा सती का त्याग, शिव जी की समाधि | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Shiv ji Dwara Sati ka Tyag, Shiv ji ki Samadhi

Sati’s Sacrifice by Lord Shiva, Samadhi of Lord Shiva | Shiv ji Dwara Sati ka Tyag, Shiv ji ki Samadhi | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- शिव जी द्वारा सती का त्याग, शिव जी की समाधि

॥ चौपाई : ॥

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सती जी ने श्री रघुनाथ जी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिव जी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया ॥ 1 ॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है । तब शिव जी ने ध्यान करके देखा और सती जी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया ॥ 2 ॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥
हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥ 3 ॥

भावार्थ:- फिर श्री रामचन्द्र जी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया । सुजान शिव जी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है ॥ 3 ॥

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥ 4 ॥

भावार्थ:- सती जी ने सीता जी का वेष धारण किया, यह जानकर शिव जी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ । उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्ति मार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ 56 ॥

भावार्थ:- सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है । प्रकट करके महादेव जी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है ॥ 56 ॥

॥ चौपाई : ॥

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- तब शिव जी ने प्रभु श्री रामचन्द्र जी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री राम जी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिव जी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया ॥ 1 ॥

अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- स्थिर बुद्धि शंकर जी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथ जी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो । आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की ॥ 2 ॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है । आप श्री रामचन्द्र जी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सती जी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिव जी से पूछा-॥3॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥ 4 ॥

भावार्थ:- हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं । यद्यपि सती जी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिव जी ने कुछ न कहा ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ 57 (क) ॥

भावार्थ:- सती जी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिव जी सब जान गए । मैंने शिव जी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है ॥ 57 (क) ॥

॥ सोरठा : ॥

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ 57 (ख) ॥

भावार्थ:- प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है ॥ 57 (ख) ॥

॥ चौपाई : ॥

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहिं बरनी ॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- अपनी करनी को याद करके सती जी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । (उन्होंने समझ लिया कि) शिव जी कृपा के परम अथाह सागर हैं । इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा ॥ 1 ॥

संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- शिव जी का रुख देखकर सती जी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं । अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा ॥ 2 ॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- वृषकेतु शिव जी ने सती को चिन्ता युक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं । इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे ॥ 3 ॥

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- वहाँ फिर शिव जी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए । शिव जी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला । उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ 58 ॥

भावार्थ:- तब सती जी कैलास पर रहने लगीं । उनके मन में बड़ा दुःख था । इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था । उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था ॥ 58 ॥

॥ चौपाई : ॥

नित नव सोचु सती उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सती जी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी । मैंने जो श्री रघुनाथ जी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना- ॥ 1 ॥

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥ 2 ॥

भावार्थ:- उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है ॥ 2 ॥

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामहि सुमिर सयानी ॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा । आरति हरन बेद जसु गावा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सती जी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती । बुद्धिमती सती जी ने मन में श्री रामचन्द्र जी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं ॥ 3 ॥

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥ 4 ॥

भावार्थ:- तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए । यदि मेरा शिव जी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत, मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ 59 ॥

भावार्थ:- तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए ॥ 59 ॥

॥ चौपाई : ॥

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥
बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- दक्षसुता सती जी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिव जी ने समाधि खोली ॥ 1 ॥

राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- शिव जी राम नाम का स्मरण करने लगे, तब सती जी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिव जी) जागे । उन्होंने जाकर शिव जी के चरणों में प्रणाम किया । शिव जी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया ॥ 2 ॥

लगे कहन हरि कथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥ 3 ॥

भावार्थ:- शिव जी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे । उसी समय दक्ष प्रजापति हुए । ब्रह्मा जी ने सब प्रकार से योग्य देख- समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया ॥ 3 ॥

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया । जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ 60 ॥

भावार्थ:- दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे । जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया ॥ 60 ॥

॥ चौपाई : ॥

किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- (दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले । विष्णु, ब्रह्मा और महादेव जी को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजा कर चले ॥ 1 ॥

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सती जी ने देखा, अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव- सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है ॥ 2 ॥

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सती जी ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिव जी ने सब बातें बतलाईं । पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेव जी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ ॥ 3 ॥

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥
बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- क्योंकि उनके हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं । आखिर सती जी भय, संकोच और प्रेम रस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं- ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ 61 ॥

भावार्थ:- हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है । यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर सहित उसे देखने जाऊँ ॥ 61 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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