Ganesh Chaturthi 2022 | Historical Stories Of Lord Ganesha In Hindi

गणेश चतुर्थी कथा | Ganesh Chaturthi Katha in Hindi

इतिहास (History)

Ganesh Chaturthi History:- पेशवाओं ने गणेशोत्सव को मनाने का प्रचलन शुरू किया। कहा जाता हैं, कि पुणे के कस्बा में गणपति की स्थपना छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। गणेश उत्सव/गणेश चतुर्थी 1630 में छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया था। उनके शासनकाल में यह गणेश चतुर्थी का उत्सव उनके साम्राज्य के कुल देवता के रूप में नियमित रूप से मनाया जाने लगा। फिर पेश हवाओं के अंत के बाद यह एक परिवारिक उत्सव बनकर रह गया।

परंतु 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव/गणेश चतुर्थी को जो स्वरूप दिया, उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। लोकमान्य तिलक गणेश चतुर्थी पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय इसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे आजादी की लड़ाई, छुआछूत की अज्ञानता को दूर करने और समाज को संगठित करने का जरिया बनाया, और इसे एक आंदोलन का स्वरूप दे दिया। इसी आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य के नींव को हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

लोकमान्य तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव/गणेश चतुर्थी का जो नीव रखा था, वह विराट वट वृक्ष का स्वरूप ले चुका था। इसी वर्ष जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने सार्वजानिक गणेश पूजन का आयोजन किया, तो उनका सिर्फ एक ही मकसद था कि सभी जातियो धर्मो को एक साझा मंच पर लाना। जहां सबभी मिल बैठ कर कोई विचार करें।

तब ही पहली बार पेशवाओ के पूज्य कूलदेवता श्री गणेश जी को बाहर लाया गया था, वो तब भारत में छुआछूत चरम सीमा पर थी, जब शुद्र जाती के लोगो को देव पूजन का यह पहला मौका था, सबभी ने देव दर्शन किये और श्री गणेश जी कि प्रतिमा का चरण छु कर आशीर्वाद लिया, उत्सव् के बाद जब श्री गणेश जी की प्रतिमा को वापस मंदिर में स्थापित किया जाने लगा।जैसा की पेशवा करते, मंदिर की मूर्ति को बाहर आँगन में रख के सार्वजानिक पूजा करते थे, और फिर वापस वही मूर्ति को मंदिर में उसके स्थान पर स्थापित कर देते थे।

लेकिन अब यह तय किया गया कि पूजा गृह में रखी मूर्ति को बाहर न निकाली जाए। किंतु यह उत्सव मनाने के लिए अगले वर्ष से पार्थिव श्री गणेशजी की मूर्ति बनाया जाए और फिर उनका चल समारोह पूर्वक विसर्जन कर दिया जाए। तभी से मूर्ति की विसर्जन शुरू हो गया। 

स्वतंत्रता संग्राम और गणेशोत्सवमित्रमेला’ एक संस्था बनाई गई थी जहां देशभक्तिपूर्ण पोवाडे (जो की एक मराठी लोकगीत का प्रकार है) को आकर्षित दंगों से बोलकर सुनाना। इस संस्था में अपने लोकगीत से पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। इससे मित्र मेला संस्था को नासिक में विनायक दामोदर सावरकर और कवि गोविंद ने बनाई थी।कवि गोविंद जी को सुनने के लिए लोगो का ताता लगा रहता था।राम-रावण की कथाओं के आधार पर ही वे लोगों के बीच देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे।

पूरे महाराष्ट्र में ये बात आग की तरह फैल गई कि गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए की जा रही है। बाद में अमरावती, नागपुर, वर्धा आदि शहरों में भी इस आंदोलन में नया रूप ले लिया।गणेशोत्सव ने पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अब अंग्रेज भी इससे घबराने लगे थे।

गणेशोत्सव के बारे में रोलेट समिति रपट (1917 में ब्रिटिश भारतीय सरकार द्वारा नियुक्त एक संविधान समिति थी) बैठक में भी चिंता जतायी गयी थी। रपट की बैठक में कहा गया था कि गणेशोत्सव के दौरान युवकों की कई टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासकों का विरोधी गीत गाती हैं, स्कूली के बच्चे स्वतंत्रता के पर्चे बांटते हैं, जिसमें साफ-साफ लिखा है की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार को उठाओ और मराठों ने शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान किया है।

साथ ही वे अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया गया है। गणेशोत्सवों में बढ़-चढ़कर भाग लेने वाले प्रमुख राष्ट्रीय नेता- वीर सावकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस,बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्ट चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजिनी नायडू भी थे।

कथा (Ganesh Chaturthi Story)

पहली कथा: (1st Story Of Ganesh Chaturthi)

शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ खण्ड में इसका वर्णन किया गया है कि मां पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वार पाल बना दिया। भगवान शिव जी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिव के द्वारपालो ने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु उसे कोई भी पराजित ना कर सका।

अन्त में भगवान शंकर क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे भगवती क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत होकर देवताओं ने देवर्षि नारदजी की सलाह पर मां जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।

मां जगदंबा ने कहा उस बालक को मैंने उत्पन्न किया था मुझे मेरा बालक जीवित चाहिए तभी मैं इस प्रलय को रोकूंगी। शिवजी के लाख समझाने पर भी माता अपनी जिद पर अड़ी रही फिर शिवजी ने निर्देश दीया की जो भी मां अपने बच्चे के उल्टा तरफ सर करके सो रही हो उस बच्चे का सर को ले आए।

श्री हरि विष्णुजी ने शिव जी के निर्देशा अनुसार उत्तर दिशा में सो रही हाथी जिसने अपने बच्चे के उल्टा तरफ सोई थी, उसके बच्चे का सर ले आए। फिर मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षोल्लास से उस गज मुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया, और देवताओं ने उस बालक को अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया।

वही ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया। भगवान शंकर जी ने से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न को नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सदा ही सबका पूज्य बनकर रहेगा। गणेश्वर तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है।

इस तिथि में व्रत करने वाले के समस्त विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां की प्राप्ति होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् ही सभी व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्य देने के बाद ही ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाएगी। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन का सेवन करे। वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी /गणेश उत्सव का व्रत करने वाले की सभी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होगी।

दूसरी कथा: (2nd Story Of Ganesh Chaturthi)

एक बार शिव जी और मां पार्वती नर्मदा नदी के तट पर गए। वही एक सुंदर स्थान पर मां पार्वती ने भगवान शिव जी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब भगवान शिव ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? मां पार्वती ने शीघ्र ही वहाँ की घास के तिनकों को बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा ! हम चौपड़ खेलने की चाह रखते हैं, किन्तु यहाँ ऐसा कोई भी नहीं है जो हमारे हार-जीत का साक्षी बने। अतः खेल के अन्त में तुम हमें यह बताना की हम दोनों में से कौन हारा और कौन जीता?

खेल का आरंभ हुआ। प्रथम खेल के अंत में मां पार्वती की जीत हुई। दूसरी पाली की शुरुआत हुई फिर अंत होते-होते मां पार्वती पुनः जीत गई। तीसरी खेल का आरंभ हुआ किंतु इस बार भी महादेव जीत ना सके।दैवयोग से तीनों ही बार मां पार्वती जी की जीतीं हुई। परंतु जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने शिव जी को विजयी बताया। परिणाम स्वरूप मां पार्वती जी ने क्रद्धीत होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़े रहकर दुःख भोगने का श्राप दे दिया।

बालक ने विनम्रता पूर्वक कहा- माँ! मुझसे यह अज्ञानवश ऐसा हो गया। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा कदापि न किया। मेरी भूल को क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममता रूपी माँ पार्वती को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से ही तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे और तभी इस श्राप से मुक्ति मिलेगी। इतना कहकर वे कैलाश पर चली गईं।

पूरे एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की सारी विधि बताई। उसके बाद बालक ने 12 दिन तक श्री गणेश जी का व्रत किया। तब श्री गणेश जी ने उसे दर्शन देते हुए कहा- मैं तुम्हारे व्रत से अति प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर को माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे इस पाँव में इतनी शक्ति दे दीजिए कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।

गणेश जी ने ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। फिर बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ देख आश्चर्यचकित हो गए। फिर उन्होंने यहां तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। तब बालक ने श्री गणेश जी की कथा शिवजी को सुना दी।

किसी कारणवश उसी दिन से अप्रसन्न होकर मां पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 12 दिनों तक पर्यन्त श्री गणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से मां पार्वती के मन में स्वयं ही महादेव से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।

वे शीघ्र ही कैलाश आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर मां पार्वती जी ने शिवजी से पूछा- स्वामी! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं अपने ही वश में ना रही और आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। तब महादेव ने ‘गणेश व्रत’ कथा का सारा इतिहास उनसे कह दिया। तब मां पार्वती जी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिनों तक पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से श्री गणेश जी का पूजन किया।

21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही मां पार्वती जी से मिलने को आए। उन्होंने भी अपनी माँ के मुख से गणेश व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया। कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्र जी को भी बताया। विश्वामित्र जी ने व्रत करके श्री गणेश जी से जन्म से मुक्त होकर ‘ब्रह्म-ऋषि’ होने का वर माँगा। गणेश जी ने उनकी यह मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेश जी, सबभी की कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

तीसरी कथा: (3rd Story Of Ganesh Chaturthi)

एक बार महादेव स्नान करने के लिए भोगावती गए थे। उनके जाने के पश्चात मां पार्वती ने अपने तन के मैल से एक पुतले को बनाया और उसका नाम ‘गणेश’ रख दिया। पार्वती ने उससे कहा- हे पुत्र! तुम एक मुगदल को लेकर द्वार पर बैठ जाओ। मैं भीतर जाकर स्नान कर आती हूँ। जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर नहीं आने देना।

भोगावती में स्नान करने के बाद जब महादेव आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया। महादेव के समझाने पर भी वो द्वार से नहीं हटा। इसे महादेव ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर गणेश जी का सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। मां पार्वती ने महादेव को नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण ही नाराज हैं। इसलिए उन्होंने जल्दी से दो थालियों में भोजन परोसकर महादेव को बुलाया।

तब वही रखी दूसरा थाल को देख तनिक आश्चर्यचकित होकर महादेव ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए हैं? मां पार्वती जी बोलीं- यह थाल पुत्र गणेश के लिए हैं, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है।मां पार्वती की बात सुनकर महादेव और भी अधिक आश्चर्यचकित हुए और कहां तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा है? हाँ नाथ! क्या आपने उसे देखा नहीं?

महादेव बोले देखा तो था, किन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उडंग बालक समझकर उसका सिर काट दिया। यह सुनकर मां पार्वती जी बहुत दुःखी हुईं। वे विलाप करने लगीं। तब मां पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए महादेव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया।

मां पार्वती जी पुनः अपने पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने महादेव तथा गणेश को प्रीतिपूर्वक भोजन कराकर बाद में स्वयं भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए ये तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाने लगी।

गणेश जी को संकट हरता क्यूँ कहा जाता है? (Why Ganesha Is Called Sankat Harta?)

एक बार की बात है,पुरे ब्रहमाण में घोर संकट छा गया। तब सभी देवी देवता भगवान शिव के पास पहुंचे और उनसे इस विकट समस्या का निवारण करने हेतु प्रार्थना करने लगे। उस समय कार्तिकेय व गणेश वही आ पहुंचे, तब मां पार्वती ने भगवान शिव जी से कहा हे स्वामी! आपको अपने दोनों बालकों में से किसी एक को इस कार्य हेतु चुनाव करना चाहिए.

तब भगवान शिव जी थोड़ी देर सोचने के बाद गणेश और कार्तिकेय को अपने समीप बुला कर कहा तुम दोनों में से जो सबसे पहले इस पुरे ब्रहमाण का चक्कर लगा कर यहां वापस आएगा, मैं उसी को श्रृष्टि के दुःख हरने का कार्य सौपूं दूंगा।

इतना सुने के साथ ही कार्तिकेय अपने वाहन मयूर(मौर) पर सवार होकर चले गये। लेकिन गणेश जी वही बैठे सोचने लगे, थोड़ी देर बाद उठकर उन्होंने अपने माता-पिता की एक परिक्रमा की और वापस अपने स्थान पर आ बैठे। कार्तिकेय जब पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा पूरी करके आये,

तब भगवान शिव जी ने गणेश जी से वही बैठे रहने का कारण पूछा तब गणेश जी ने उत्तर दिया माता-पिता के चरणों में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण बसा हुआ हैं, अतः उनकी परिक्रमा से ही ये सभी कार्य सिध्द हो जाता हैं जो कि मैं कर चूका हूँ। भगवान गणेश की यह उत्तर सुनकर शिव जी आती प्रसन्न हुए एवम उन्होंने गणेश जी को संकट हरने का कार्य सौप दिया।

इसलिए स्त्रियाँ प्रति माह चतुर्थी का व्रत करती हैं ताकि गणेश जी उनके घरों में आने वाले समस्त कष्टों को दूर कर दे।रात्रि में चन्द्र को अर्ग चढ़ाकर पूजा के बाद ही स्त्रियां अपना उपवास खोलती हैं।

भारत में प्रसिद्ध श्री गणेश जी के मंदिरों व स्थानों की सूची (List of famous shree Ganesh temples and their place in India)

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मंदिरों के नाम

स्थानों के नाम

1चिंतामनमध्य प्रदेश (उज्जैन)
2खजरानामध्य प्रदेश (इंदौर)
3सिद्धिविनायकमहाराष्ट्र (मुंबई)
4अष्टविनायकमहाराष्ट्र (पुणे)
5स्वयंभू गणपतिमहाराष्ट्र (रत्नागिरी)
6मनाकुला विनायगरपुडुचेरी
7मधुर महागणपतिकेरल (कासरगोड)
8मोती डूंगरीराजस्थान (जयपुर)
9खड़े गणेश जीराजस्थान (कोटा)

FAQ

पेशवाओं ने गणेशोत्सव को मनाने का प्रचलन शुरू किया। कहा जाता हैं, कि पुणे के कस्बा में गणपति की स्थपना छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। गणेश उत्सव/गणेश चतुर्थी 1630 में छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया था।

पुणे के कस्बा में गणपति की स्थपना छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी।गणेश उत्सव/गणेश चतुर्थी 1630 में छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया था।परंतु 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव/गणेश चतुर्थी को जो स्वरूप दिया, उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये।

भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को इसी दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था।


परानाम

धन्यवाद !


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