श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- धनुषभंग | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Ram ji ne Bhagavan Shiv ka Dhanush Tod Diya

Ram ji broke the bow of Lord Shiva | Ram ji ne Bhagavan Shiv ka Dhanush Tod Diya | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- धनुषभंग

॥ दोहा : ॥

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु ।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥ 259 ॥

भावार्थ:- इधर जब लक्ष्मण जी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्र जी ने शिव जी के धनुष की ओर ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित वचन बोले- ॥ 259 ॥

॥ चौपाई : ॥

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे । श्री रामचन्द्र जी शिव जी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं । मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ ॥ 1 ॥

चाप समीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥ 2 ॥

भावार्थ:- श्री रामचन्द्र जी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया । सबका संदेह और अज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान, ॥ 2 ॥

भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- परशुराम जी के गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीता जी का सोच, जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल, ॥ 3 ॥

संभुचाप बड़ बोहितु पाई । चढ़े जाइ सब संगु बनाई ॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहिं कोउ कड़हारु ॥ 4 ॥

भावार्थ:- ये सब शिव जी के धनुष रूपी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढ़े । ये श्री रामचन्द्र जी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि ।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ 260 ॥

भावार्थ:- श्री राम जी ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम श्री राम जी ने सीता जी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना ॥ 260 ॥

॥ चौपाई : ॥

देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- उन्होंने जानकी जी को बहुत ही विकल देखा । उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था । यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा? ॥ 1 ॥

का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥
अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर श्री राम जी ने जानकी जी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए ॥ 2 ॥

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥ 3 ॥

भावार्थ:- मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया । जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा (मंडलाकार) हो गया ॥ 3 ॥

लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा), सबने श्री रामजी को (धनुष खींचे) खड़े देखा । उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला । भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए ॥ 4 ॥

छन्द :

भे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले ।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं ।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं ॥

भावार्थ:- घोर, कठोर शब्द से (सब) लोक भर गए, सूर्य के घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे । दिग्गज चिग्घाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे । देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे । तुलसीदास जी कहते हैं (जब सब को निश्चय हो गया कि) श्री राम जी ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब ‘श्री रामचन्द्र की जय’ बोलने लगे ।

सोरठा :

संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु ।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥ 261 ॥

भावार्थ:- शिव जी का धनुष जहाज है और श्री रामचन्द्र जी की भुजाओं का बल समुद्र है । (धनुष टूटने से) वह सारा समाज डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था । (जिसका वर्णन ऊपर आया है।) ॥ 261 ॥

॥ चौपाई : ॥

प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥
कौसिकरूप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥ 1 ॥

भावार्थ:- प्रभु ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए । यह देखकर सब लोग सुखी हुए । विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में, जिसमें प्रेम रूपी सुंदर अथाह जल भरा है, ॥ 1 ॥

रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥
बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- राम रूपी पूर्णचन्द्र को देखकर पुलकावली रूपी भारी लहरें बढ़ने लगीं । आकाश में बड़े जोर से नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएँ गान करके नाचने लगीं ॥ 2 ॥

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा ॥
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥ 3 ॥

भावार्थ:- ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और मुनीश्वर लोग प्रभु की प्रशंसा कर रहे हैं और आशीर्वाद दे रहे हैं । वे रंग-बिरंगे फूल और मालाएँ बरसा रहे हैं । किन्नर लोग रसीले गीत गा रहे हैं ॥ 3 ॥

रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनिजात न जानी ॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- सारे ब्रह्माण्ड में जय-जयकार की ध्वनि छा गई, जिसमें धनुष टूटने की ध्वनि जान ही नहीं पड़ती । जहाँ-तहाँ स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि श्री रामचन्द्र जी ने शिव जी के भारी धनुष को तोड़ डाला ॥ 4 ॥


परानाम

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