श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- बंदीजनों द्वारा जनक प्रतिज्ञा की घोषणा | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Bandejanon Dvara Janak Pratigya ki Ghoshana

Announcement of King Janaka’s Pledge by prisoners | Bandejanon Dvara Janak Pratigya ki Ghoshana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- बंदीजनों द्वारा जनक प्रतिज्ञा की घोषणा

हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि प्रसून अपछरा गाईं ॥
पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥ 3 ॥

भावार्थ:- देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं । सीता जी के कर कमलों में जय माला सुशोभित है । सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे ॥ 3 ॥

सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥ 4 ॥

भावार्थ:- सीता जी चकित चित्त से श्री राम जी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए । सीता जी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचा कर वहीं (श्री राम जी में) जा लगे (स्थिर हो गए) ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ 248 ॥

भावार्थ:- परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीता जी सकुचा गईं । वे श्री रामचन्द्र जी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं ॥ 248 ॥

॥ चौपाई : ॥

राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- श्री रामचन्द्र जी का रूप और सीता जी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे) । सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं । मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं- ॥ 1 ॥

हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू । सीय राम कर करै बिबाहू ॥ 2 ॥

भावार्थ:- हे विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीता जी का विवाह राम जी से कर दें ॥ 2 ॥

जगु भल कहिहि भाव सब काहू । हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू ॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है । हठ करने से अंत में भी हृदय जलेगा । सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकी जी के योग्य वर तो यह साँवला ही है ॥ 3 ॥

तब बंदीजन जनक बोलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- तब राजा जनक ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया । वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए । राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो । भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल ।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ 249 ॥

भावार्थ:- भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए । हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं- ॥ 249 ॥

॥ चौपाई : ॥

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥
रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥ 1 ॥

भावार्थ:- राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिव जी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है । बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न हुई) ॥ 1 ॥

सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही । बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥ 2 ॥

भावार्थ:- उसी शिव जी के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकी जी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी ॥ 2 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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