श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Shri Sitaji’s ka Yagyashala me Pravesh

Shri Sitaji’s entry into Yagyashala | Shri Sitaji’s ka Yagyashala me Pravesh | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश

॥ दोहा : ॥

सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल ।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ 244 ॥

भावार्थ:- सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था । (स्वयं) राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया ॥ 244 ॥

॥ चौपाई : ॥

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे । जनु राकेश उदय भएँ तारे ॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं । (उनके तेज को देखकर) सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्र जी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं ॥ 1 ॥

बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- (इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिव जी के विशाल धनुष को (जो संभव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीता जी श्री रामचन्द्र जी के ही गले में जयमाला डालेंगी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय रामचन्द्र जी के हाथ रहेगी) । (यों सोचकर वे कहने लगे) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो ॥ 2 ॥

बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- दूसरे राजा, जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे । (उन्होंने कहा) धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे), फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है ॥ 3 ॥

एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥ 4 ॥

भावार्थ:- काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे । यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुस्कुराए ॥ 4 ॥

सोरठा :

सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ 245 ॥

भावार्थ:- (उन्होंने कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर) श्री रामचन्द्र जी सीता जी को ब्याहेंगे । (रही युद्ध की बात, सो) महाराज दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है ॥ 245 ॥

॥ चौपाई : ॥

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥ 1 ॥

भावार्थ:- गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो । मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीता जी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो), ॥ 1 ॥

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- और श्री रघुनाथ जी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा) । सुंदर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिव जी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं) ॥ 2 ॥

सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- समीप आए हुए (भगवत्‍दर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे, वही जाकर करो । हमने तो (श्री रामचन्द्र जी के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर लिया) ॥ 3 ॥

अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥ 4 ॥

भावार्थ:- ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री राम जी का अनुपम रूप देखने लगे । (मनुष्यों की तो बात ही क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाइ ॥ 246 ॥

भावार्थ:- तब सुअवसर जानकर जनक जी ने सीता जी को बुला भेजा । सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं ॥ 246 ॥

॥ चौपाई : ॥

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकी जी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता । उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात्‌ वे जगत की स्त्रियों के अंगों को दी जाती हैं) । (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकी जी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है) ॥ 1 ॥

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सीता जी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा ।) यदि किसी स्त्री के साथ सीता जी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ (जिसकी उपमा उन्हें दी जाए) ॥ 2 ॥

गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥ 3 ॥

भावार्थ:- (पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो उनमें) सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती अंर्द्धांगिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष-शिव जी का है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकी जी को कहा ही कैसे जाए ॥ 3 ॥

जौं छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छपु सोई ॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥ 4 ॥

भावार्थ:- (जिन लक्ष्मी जी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर । जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुंदरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण ।

ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकी जी की समता को कैसे पा सकती हैं । हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृंगार (रस) पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे, ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल ।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ 247 ॥

भावार्थ:- इस प्रकार (का संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) संकोच के साथ सीता जी के समान कहेंगे । (जिस सुंदरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुंदरता भी प्राकृत, लौकिक सुंदरता ही होगी, क्योंकि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है । अतः उस सुंदरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकी जी की तुलना करना कवि के लिए बड़े संकोच की बात होगी ।

जिस सुंदरता से जानकी जी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुंदरता उपर्युक्त सुंदरता से भिन्न अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मी जी का अप्राकृत रूप भी यही है । वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकी जी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ । इसके अतिरिक्त जानकी जी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है । अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है ।) ॥ 247 ॥

॥ चौपाई : ॥

चलीं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सयानी सखियाँ सीता जी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं । सीता जी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है । जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है ॥ 1 ॥

भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है । जब सीता जी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए ॥ 2 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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