श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Vishwamitra ka shree Ram-Lakshman sahit Janakpur mein Pravesh

Vishwamitra’s entry into Janakpur along with Shree Ram-Lakshman | Vishwamitra ka shree Ram-Lakshman sahit Janakpur mein Pravesh | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश

॥ चौपाई : ॥

चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- श्री राम जी और लक्ष्मण जी मुनि के साथ चले । वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगा जी थीं । महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देव नदी गंगा जी पृथ्वी पर आई थीं ॥ 1 ॥

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥ 2 ॥

भावार्थ:- तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगा जी में) स्नान किया । ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए । फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए ॥ 2 ॥

पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥
बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥ 3 ॥

भावार्थ:- श्री राम जी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए । वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं ॥ 3 ॥

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥
बरन बरन बिकसे बनजाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥ 4 ॥

भावार्थ:- मकरंद रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं । रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं । रंग-रंग के कमल खिले हैं । सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ 212 

भावार्थ:- पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं ॥ 212 ॥

॥ चौपाई : ॥

बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥ 1 ॥ 

भावार्थ:- नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता । मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है । सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है ॥ 1 ॥

धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठे सकल बस्तु लै नाना ।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं । सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं ॥ 2 ॥

मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है । नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं ॥ 3 ॥

अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥
होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जहाँ जनक जी का अत्यन्त अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!) । कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ 213 ॥

भावार्थ:- उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं । सीता जी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है ॥ 213 ॥

॥ चौपाई : ॥

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥
बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रख संकुल सब काला ॥ 1 ॥

भावार्थ:- राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है । घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं ॥ 1 ॥

सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- बहुत से शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं । उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं । नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं ॥ 2 ॥

देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥ 3 ॥

भावार्थ:- (वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्र जी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए ॥ 3 ॥

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनि बृंद समेता ॥
बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥ 4 ॥

भावार्थ:- कृपा के धाम श्री रामचन्द्र जी ‘बहुत अच्छा स्वामिन्‌!’ कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए । मिथिलापति जनक जी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं, ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ 214 ॥

भावार्थ:- तब उन्होंने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंद जी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्र जी से मिलने चले ॥ 214 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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