Vishwamitra- Protection of Yagya and Redemption of Ahlaya | Vishvaamitr- Yagy ke Raksha aur Ahalya ka Uddhar | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा और अहल्या उद्धार
॥ चौपाई : ॥
प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥ होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ 1 ॥
भावार्थ:- सबेरे श्री रघुनाथ जी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए । यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे । आप (श्री राम जी) यज्ञ की रखवाली पर रहे ॥ 1 ॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥ 2 ॥
भावार्थ:- यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा । श्री राम जी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा ॥ 2 ॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥ मारि असुर द्विज निर्भयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ 3 ॥
भावार्थ:- फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा । इधर छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला । इस प्रकार श्री राम जी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया । तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे ॥ 3 ॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥ भगति हेतु बहुत कथा पुराना । कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ 4 ॥
भावार्थ:- श्री रघुनाथ जी ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की । भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे ॥ 4 ॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥ धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ 5 ॥
भावार्थ:- तदन्तर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए । रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्र जी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी के साथ प्रसन्न होकर चले ॥ 5 ॥
आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ 6 ॥
भावार्थ:- मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा । वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था । पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही ॥ 6 ॥
॥ दोहा : ॥
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर । चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ 210 ॥
भावार्थ:- गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है । हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए ॥ 210 ॥
छन्द :
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही । देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥ अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही । अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥ 1 ॥
भावार्थ:- श्री राम जी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई । भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई । अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई । उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे । वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी ॥ 1 ॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई । अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥ मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई । राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ 2 ॥
भावार्थ:- फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथ जी की कृपा से भक्ति प्राप्त की । तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथ जी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं । हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए ॥ 2 ॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना । देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना । पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥ 3 ॥
भावार्थ:- मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया । मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आप) को नेत्र भरकर देखा । इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं । हे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है । हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे ॥ 3 ॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी । सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी । जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी ॥ 4 ॥
भावार्थ:- जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगा जी प्रकट हुईं, जिन्हें शिव जी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्मा जी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा । इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई ॥ 4 ॥
॥ दोहा : ॥
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल । तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥ 211 ॥
भावार्थ:- प्रभु श्री रामचन्द्र जी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर ॥ 211 ॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम – Pause 7 of 30 Day Recitation

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