श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- रामजी का शिवजी से विवाह के लिये अनुरोध तथा सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वती जी का महत्व | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Ram ji ka Shiv ji se Vivah Anurodh

Ram ji ka Shiv ji se Vivah Anurodh or Saptrishiyo ki Pariksha me Parvati ji ka Mahatva | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- राम जी का शिव जी से विवाह के लिये अनुरोध तथा सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वती जी का महत्व

॥ चौपाई : ॥

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- शिव जी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती । हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ ॥ 1 ॥

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए । फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं । हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है ॥ 2 ॥

प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥ 3 ॥

भावार्थ:- शिव जी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्र जी संतुष्ट हो गए । प्रभु ने कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई । अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना ॥ 3 ॥

अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥ 4 ॥

भावार्थ:- इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्र जी अन्तर्धान हो गए । शिव जी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली । उसी समय सप्तर्षि शिव जी के पास आए । प्रभु महादेव जी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे- ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ 77 ॥

भावार्थ:- आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए ॥ 77 ॥

॥ चौपाई : ॥

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो । मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो? ॥ 1 ॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा-) बात कहते मन बहुत सकुचाता है । आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे ॥ 2 ॥

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥ 3 ॥

भावार्थ:- मन ने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है । नारद जी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उड़ना चाहती हूँ ॥ 3 ॥

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिव जी को ही पति बनाना चाहती हूँ ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह ।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ 78 ॥

भावार्थ:- पार्वती जी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है? ॥ 78 ॥

॥ चौपाई : ॥

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 1 ॥

भावार्थ:- उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा । चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया । फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ ॥ 1 ॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर- बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं । उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं । वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं ॥ 2 ॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥ 3 ॥

भावार्थ:- उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है ॥ 3 ॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥ 4 ॥

भावार्थ:- ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं । पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं ।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ 79 ॥

भावार्थ:- अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं । ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं? ॥ 79 ॥

॥ चौपाई : ॥

अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥ 1 ॥

भावार्थ:- अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है । वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं ॥ 1 ॥

दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- वह दोषों से रहित, सारे सद्‍गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठ पुरी का रहने वाला है । हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे । यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं- ॥ 2 ॥

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥
कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥ 3 ॥

भावार्थ:- आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए । सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता ॥ 3॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 4 ॥

भावार्थ:- अतः मैं नारद जी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती । जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ 80 ॥

भावार्थ:- माना कि महादेव जी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्‍गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है ॥ 80 ॥

॥ चौपाई : ॥

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर- माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिव जी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे? ॥ 1 ॥

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥ 2 ॥

भावार्थ:- यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर- कन्या बहुत हैं । खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए) ॥ 2 ॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहिं सत बार महेसू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिव जी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी । स्वयं शिव जी सौ बार कहें, तो भी नारद जी के उपदेश को न छोड़ूँगी ॥ 3 ॥

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जगज्जननी पार्वती जी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ । आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई । (शिव जी में पार्वती जी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!॥4॥

॥ दोहा : ॥

तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु ।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ 81 ॥

भावार्थ:- आप माया हैं और शिव जी भगवान हैं । आप दोनों समस्त जगत के माता -पिता हैं । (यह कहकर) मुनि पार्वती जी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए । उनके शरीर बार- बार पुलकित हो रहे थे ॥ 81 ॥

॥ चौपाई : ॥

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वती जी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिव जी के पास जाकर उनको पार्वती जी की सारी कथा सुनाई ॥ 1 ॥

भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- पार्वती जी का प्रेम सुनते ही शिव जी आनन्दमग्न हो गए । सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए । तब सुजान शिव जी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथ जी का ध्यान करने लगे ॥ 2 ॥

तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥ 3 ॥

भावार्थ:- उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था । उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए ॥ 3 ॥

अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥ 4 ॥

भावार्थ:- वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था । देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए । तब उन्होंने ब्रह्मा जी के पास जाकर पुकार मचाई । ब्रह्मा जी ने सब देवताओं को दुःखी देखा ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ 82 ॥

भावार्थ:- ब्रह्मा जी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा ॥ 82 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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