श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- सती का भ्रम, श्री राम जी का ऐश्वर्य और सती का खेद | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Sati ka Bhram, Shri Ram jee ka Aishvary aur Sati ka Khed

Sati’s Confusion, Shri Ramji’s opulence and Sati’s regret | Sati ka Bhram, Shri Ram jee ka Aishvary aur Sati ka Khed | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- सती का भ्रम, श्री राम जी का ऐश्वर्य और सती का खेद

॥ दोहा : ॥

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ 49 ॥

भावार्थ:- श्री रघुनाथ जी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं । जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं ॥ 49 ॥

॥ चौपाई : ॥

संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥

भावार्थ:- श्री शिव जी ने उसी अवसर पर श्री राम जी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ । उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्र जी) को शिव जी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥

जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जगत्‌ को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिव जी चल पड़े । कृपानिधान शिव जी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती जी के साथ चले जा रहे थे ॥ 2 ॥

सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- सती जी ने शंकर जी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया । (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकर जी की सारा जगत्‌ वंदना करता है, वे जगत्‌ के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं ॥ 3 ॥

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधामा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥ 50 ॥

भावार्थ:- जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेद रहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? ॥ 50 ॥

॥ चौपाई : ॥

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥ 1 ॥

भावार्थ:- देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान हैं, वे भी शिव जी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे? ॥ 1 ॥

संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- फिर शिव जी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते । सब कोई जानते हैं कि शिव जी सर्वज्ञ हैं । सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था ॥ 2 ॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥ 3 ॥

भावार्थ:- यद्यपि भवानी जी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिव जी सब जान गए । वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है । ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए ॥ 3 ॥

जासु कथा कुंभज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीर जी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं ॥ 4 ॥

॥ छंद : ॥

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी ॥

भावार्थ:- ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, माया पति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान श्री राम जी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है ।

॥ सोरठा : ॥

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ 51 ॥

भावार्थ:- यद्यपि शिव जी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सती जी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा । तब महादेव जी मन में भगवान की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले- ॥ 51 ॥

॥ चौपाई : ॥

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं ॥ 1 ॥

भावार्थ:- जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ ॥ 1 ॥

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बेचारु करौं का भाई ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना । शिव जी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)? ॥ 2 ॥

इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत भलाई नाहीं ॥ 3 ॥

भावार्थ:- इधर शिव जी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष कन्या सती का कल्याण नहीं है । जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है ॥ 3 ॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा । तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे । (मन में) ऐसा कहकर शिव जी भगवान श्री हरि का नाम जपने लगे और सती जी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्र जी थे ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप ।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप ॥ 52 ॥

भावार्थ:- सती बार-बार मन में विचार कर सीता जी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सती जी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्र जी आ रहे थे ॥ 52 ॥

॥ चौपाई : ॥

लछिमन दीख उमाकृत बेषा । चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सती जी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण जी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया । वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके । धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथ जी के प्रभाव को जानते थे ॥ 1 ॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्र जी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान श्री रामचंद्र जी हैं ॥ 2 ॥

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥ 3 ॥

भावार्थ:- स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान के सामने) भी सती जी छिपाव करना चाहती हैं । अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्र जी हँसकर कोमल वाणी से बोले ॥ 3 ॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥ 4 ॥

भावार्थ:- पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया । फिर कहा कि वृषकेतु शिव जी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं? ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ 53 ॥

भावार्थ:- श्री रामचन्द्र जी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सती जी को बड़ा संकोच हुआ । वे डरती हुई (चुपचाप) शिव जी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई ॥ 53 ॥

॥ चौपाई : ॥

मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- कि मैंने शंकर जी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्र जी पर आरोप किया । अब जाकर मैं शिव जी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सती जी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई ॥ 1 ॥

जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥ 2 ॥

भावार्थ:- श्री रामचन्द्र जी ने जान लिया कि सती जी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया । सती जी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्र जी सीता जी और लक्ष्मण जी सहित आगे चले जा रहे हैं । (इस अवसर पर सीता जी को इसलिए दिखाया कि सती जी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।) ॥ 2 ॥

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर बेषा ॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥ 3 ॥

भावार्थ:- (तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मण जी और सीता जी के साथ श्री रामचन्द्र जी सुंदर वेष में दिखाई दिए । वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्र जी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं ॥ 3 ॥

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- सती जी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे । (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्र जी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ 54 ॥

भावार्थ:- उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं । जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं ॥ 54 ॥

॥ चौपाई : ॥

देखे जहँ जहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- सती जी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथ जी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा । संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे ॥ 1 ॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥ 2 ॥

भावार्थ:- (उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्र जी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्र जी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा । सीता सहित श्री रघुनाथ जी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे ॥ 2 ॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भईं सभीता ॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥ 3 ॥

भावार्थ:- (सब जगह) वही रघुनाथ जी, वही लक्ष्मण और वही सीता जी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं । उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही । वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं ॥ 3 ॥

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्ष कुमारी (सती जी) को कुछ भी न दिख पड़ा । तब वे बार-बार श्री रामचन्द्र जी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिव जी थे ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ 55 ॥

भावार्थ:- जब पास पहुँचीं, तब श्री शिव जी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने राम जी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो ॥ 55 ॥

मास पारायण, दूसरा विश्राम – Pause 2 of 30 Day Recitation


परानाम

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