श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- कवि वंदना | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Kavi Vandana

Salutations to the immortal poets | Kavi Vandana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- कवि वंदना

॥ चौपाई : ॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥
तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥ 1 ॥

भावार्थ:- यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्र जी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा । इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है । (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है । उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है । थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है) ॥ 1 ॥

एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद परधामा ॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥ 2 ॥

भावार्थ:- जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है ॥ 2 ॥

सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं । जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया ॥ 3 ॥

गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहिं पुनीत सुफल निज बानी ॥ 4 ॥

भावार्थ:- वे प्रभु श्री रघुनाथ जी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं । यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं ॥ 4 ॥

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा । कहिहउँ नाइ राम पद माथा ॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥ 5 ॥

भावार्थ:- उसी बल से (महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही) मैं श्री रामचन्द्र जी के चरणों में सिर नवाकर श्री रघुनाथ जी के गुणों की कथा कहूँगा । इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है । भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा ॥ 5 ॥

॥ दोहा : ॥

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं ।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ 13 ॥

भावार्थ:- जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं । (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री राम चरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा) ॥ 13 ॥

॥ चौपाई : ॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥ 1 ॥

भावार्थ:- इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथ जी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा । व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है ॥ 1 ॥

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे । पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥ 2 ॥

भावार्थ:- मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरण कमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें । कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथ जी के गुण समूहों का वर्णन किया है ॥ 2 ॥

जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें । प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें ॥ 3 ॥

भावार्थ:- जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ ॥ 3 ॥

होहु प्रसन्न देहु बरदानू । साधु समाज भनिति सनमानू ॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं । सो श्रम बादि बाल कबि करहीं ॥ 4 ॥

भावार्थ:- आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं ॥ 4 ॥

कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस अस मोहि अँदेसा ॥ 5 ॥

भावार्थ:- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगा जी की तरह सबका हित करने वाली हो । श्री रामचन्द्र जी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है । यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है ॥ 5 ॥

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे । सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥ 6 ॥

भावार्थ:- परन्तु हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है । रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है ॥ 6 ॥

॥ दोहा : ॥

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान ।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥14 (क) ॥

भावार्थ:- चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें ॥ 14 (क) ॥

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर ।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥14 (ख) ॥

भावार्थ:- ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ ॥14 (ख) ॥

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल ।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल ॥ 14 (ग) ॥

भावार्थ:- कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें ॥ 14 (ग) ॥


परानाम

धन्यवाद !


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