श्री रामचरितमानस बालकाण्ड- गुरु वंदना और ब्राह्मण-संत वंदना | Shri Ramcharitmanas Baal Kand- Guru Vandana and Brahmans-Saints Vandana

Salutations To The Guru Vandana or Brahmans-Saints Vandana | गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड- गुरु वंदना और ब्राह्मण-संत वंदना

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥ 5 ॥

भावार्थ:- मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं ॥ 5 ॥

॥ चौपाई : ॥

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥ 1 ॥

भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है । वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है ॥ 1 ॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- वह रज सुकृति (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है ॥ 2 ॥

श्री गुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥ 3 ॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है । वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं ॥ 3 ॥

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥ 4 ॥

भावार्थ:- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं ॥ 4 ॥

॥ दोहा : ॥

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ 1 ॥

भावार्थ:- जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं ॥ 1 ॥

॥ चौपाई : ॥

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥ 1 ॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है । जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है । उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ ॥ 1 ॥

ब्राह्मण-संत वंदना:-

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥ 2 ॥

भावार्थ:- पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं । फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ ॥ 2 ॥

साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥ 3 ॥

भावार्थ:- संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है । (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है । इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है ।)

(जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है । अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है ॥ 3 ॥

मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥ 4 ॥

भावार्थ:- संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है । जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगा जी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती जी हैं ॥ 4 ॥

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥ 5 ॥

भावार्थ:- विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुना जी हैं और भगवान विष्णु और शंकर जी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं ॥ 5 ॥

बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥ 6 ॥

भावार्थ:- (उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है । वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है ॥ 6 ॥

अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥ 7 ॥

भावार्थ:- वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है ॥ 7 ॥


परानाम

धन्यवाद !


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