दुर्गा सप्तशती के तीसरे अध्याय को “चण्ड मुंड वध” भी कहा जाता है, और यह Third Chapter of Durga Saptashati Path भगवती दुर्गा के आदिशक्ति रूप के वर्णन के साथ साथ महिषासुर के वध की कथा को अद्यतित करता है । Third Chapter of Durga Saptashati Path दुर्गा सप्तशती के प्रसिद्ध अध्यायों में से एक है और इसमें देवी दुर्गा की महाकाली रूप की महत्वपूर्ण कथा दिखाई जाती है ।
Third Chapter of Durga Saptashati Path में, दुर्गा मां को अपनी दिव्य दृष्टि से महिषासुर के सभी सेनानियों की पहचान होती है । महिषासुर ने चण्ड और मुंड नामक दो अपराधी असुरों को अपने सेना के नेता बनाया है । मां दुर्गा की अद्भुत क्रिपा से चण्ड और मुंड भी अपने शक्तिशाली रूप की वर्णन करते हैं और उन्हें अनन्त सैन्य और अद्वितीय शक्तियों के साथ आसीन दिखते हैं ।
मां दुर्गा इस Third Chapter of Durga Saptashati Path में महिषासुर के सेनानायकों चण्ड और मुंड का वध करती हैं, और उनके मृत्यु के बाद महिषासुर खुद मां के सामने आता है । यहां देवी दुर्गा की महाकाली रूप की विशेष चर्चा होती है, और उनके भयानक रूप का वर्णन किया जाता है । मां दुर्गा ने महिषासुर को एक दिव्य शूल से मारकर उनकी विजय प्राप्त की और इससे उनकी महत्वपूर्ण शक्तियों का परिचय मिलता है ।
Third Chapter of Durga Saptashati Path करने से भक्तों को मां दुर्गा के दिव्य रूप, उनकी शक्ति, और उनके दुष्टों पर विजय प्राप्त करने की कथा में अद्भुत शक्ति और उत्साह मिलता है । यह Third Chapter of Durga Saptashati Path उन्हें आत्मविश्वास और संकल्प में वृद्धि करता है, जिससे वे जीवन की मुश्किलातों का सामना कर सकें ।
माँ दुर्गा की स्तुति का सर्वश्रेष्ठ साधन Third Chapter of Durga Saptashati Path है, यहाँ पर दुर्गा सप्तशती पाठ का तीसरा अध्याय संस्कृत और हिन्दी भाषा में प्रकाशित किया गया है । आप अपनी इच्छानुसार मनपसंद भाषा में श्री दुर्गा सप्तशती पाठ पढ़ सकते हैं, माँ भगवती की आराधना कर सकते हैं ।
श्रीदुर्गासप्तशती – तृतीय अध्याय संस्कृत में
सेनापतियोंसहित महिषासुर का वध
॥ ध्यानम् ॥
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम् ।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥
“ॐ” ऋषिररुवाच ॥ १ ॥
निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः ।
सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ॥ २ ॥
स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः ।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ॥ ३ ॥
तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान् ।
जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ॥ ४ ॥
चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम् ।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ॥ ५ ॥
सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः ।
अभ्यधावत तां देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ॥ ६ ॥
सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि ।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ॥ ७ ॥
तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन ।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ॥ ८ ॥
चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः ।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ॥ ९ ॥
दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत ।
तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ॥ १० ॥
हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ ।
आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ॥ ११ ॥
सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम् ।
हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ॥ १२ ॥
भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः ।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ॥ १३ ॥
ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः ।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ॥ १४ ॥
युद्ध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥१५॥
ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा ।
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम् ॥ १६ ॥
उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः ।
दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ॥ १७ ॥
देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम् ।
बाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ॥ १८ ॥
उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम् ।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ॥ १९ ॥
बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः ।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ॥ २० ॥
एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः ।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान् ॥ २१ ॥
कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान् ।
लाङ्गूलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्यां च विदारितान् ॥ २२ ॥
वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च ।
निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले ॥ २३ ॥
निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः ।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ॥ २४ ॥
सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः ।
श्रृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ॥ २५ ॥
वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत ।
लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ॥ २६ ॥
धुतश्रृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः ।
श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः ॥ २७ ॥
इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम् ।
दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ॥ २८ ॥
सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम् ।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ॥ २९ ॥
ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः ।
छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ॥ ३० ॥
तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः ।
तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ॥ ३१ ॥
करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च ।
कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ॥ ३२ ॥
ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः ।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ३३ ॥
ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम् ।
पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ॥ ३४ ॥
ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः ।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ॥ ३५ ॥
सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः ।
उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ॥ ३६ ॥
देव्युवाच ॥ ३७ ॥
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥ ३८ ॥
ऋषिरुवाच ॥ ३९ ॥
एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम् ।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ॥ ४० ॥
ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः ।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद् देव्या वीर्येण संवृतः ॥ ४१ ॥
अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः ।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ॥ ४२ ॥
ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत् ।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ॥ ४३ ॥
तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः ।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ॐ ॥ ४४ ॥
॥ श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः सम्पूर्णं ॥
Third Chapter of Durga Saptashati Path
दुर्गा सप्तशती पाठ – तीसरा अध्याय हिन्दी में
सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
महर्षि मेध ने कहा -महिषासुर की सेना नष्ट होती देख कर, उस सेना का सेनापति चिक्षुर क्रोध में भर देवी के साथ युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा । वह देवी पर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, मानो सुमेरु पर्वत पानी की धार बरसा रहा हो । इस प्रकार देवी ने अपने बाणों से उसके बाणों को काट डाला तथा उसके घोड़ो व सारथी को मार दिया, साथ ही उसके धनुष और उसकी अत्यंत ऊँची ध्वजा को भी काटकर नीचे गिरा दिया । उसका धनुष कट जाने के पश्चात उसके शरीर के अंगों को भी अपने बाणों से बींध दिया ।
धनुष, घोड़ो और सारथी के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की तरफ आया, उसने अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार से देवी के सिंह के मस्तक पर प्रहार किया और बड़े वेग से देवी की बायीं भुजा पर वार किया किन्तु देवी की बायीं भुजा को छूते ही उस दैत्य की तलवार टूटकर दो टुकड़े हो गई । इससे दैत्य ने क्रोध में भरकर शूल हाथ में लिया और उसे भद्रकाली देवी की ओर फेंका ।
देवी की ओर आता हुआ वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्य के समान प्रज्वलित हो उठा । उस शूल को अपनी ओर आते हुए देखकर देवी ने भी शूल छोड़ा और महा असुर के शूल के सौ टुकड़े कर दिए और साथ ही महा असुर के प्राण भी हर लिये, चिक्षुर के मरने पर देवताओं को दुख देने वाला चामर नामक दैत्य हाथी पर सवार होकर देवी से लड़ने के लिए आया और उसने आने के साथ ही शक्ति से प्रहार किया, किंतु देवी ने अपनी हुंकार से ही उसे तोड़कर पृथ्वी पर डाल दिया ।
शक्ति को टूटा हुआ देखकर दैत्य ने क्रोध से लाल होकर शूल को चलाया किन्तु देवी ने उसको भी काट दिया । इतने में देवी का सिंह उछल कर हाथी के मस्तक पर सवार हो गया और दैत्य के साथ बहुत ही तीव्र युद्ध करने लगा, फिर वह दोनों लड़ते हुए हाथी पर से पृथ्वी पर आ गिरे और दोनों बड़े क्रोध से लड़ने लगे,
फिर सिंह बड़े जोर से आकाश की ओर उछला और जब पृथ्वी की ओर आया तो अपने पंजे से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया, क्रोध से भरी हुई देवी ने शिला और वृक्ष आदि की चोटों से उदग्र को भी मार दिया । कराल को दाँतों, मुक्कों और थप्पड़ो से चूर्ण कर डाला ।
क्रुद्ध हुई देवी ने गदा के प्रहार से उद्धत दैत्य को मार गिराया, भिन्दिपाल से वाष्पकल को, बाणों से ताम्र तथा अन्धक को मौत के घाट उतार दिया, तीनों नेत्रों वाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य और महाहनु नामक राक्षसों को मार गिराया । उसने अपनी तलवार से विडाल नामक दैत्य का सिर काट डाला तथा अपने बाणों से दुर्धर और दुर्मुख राक्षसों को यमलोक को पहुँचा दिया । इस प्रकार जब महिषासुर ने देखा कि देवी ने मेरी सेना को नष्ट कर दिया है तो वह भैंसे का रूप धारण कर देवी के गणों को दु:ख देने लगा ।
उन गणों में कितनों को उसने मुख के प्रहार से, कितनों को खुरों से, कितनों को पूँछ से, कितनों को सींगों से, बहुतों को दौड़ाने के वेग से, अनेकों को सिंहनाद से, कितनों को चक्कर देकर और कितनों को श्वास वायु के झोंको से पृथ्वी पर गिरा दिया । वह दैत्य इस प्रकार गणों की सेना को गिरा देवी के सिंह को मारने के लिए दौड़ा । इस पर देवी को बड़ा गुसा आया । उधर दैत्य भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा सींगों से पर्वतों को उखाड़-2 कर धरती पर फेंकने लगा और मुख से शब्द करने लगा ।
महिषासुर के वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी, उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र चारों ओर फैलने लगा, हिलते हुए सींगों के आघात से मेघ खण्ड-खण्ड हो गए और श्वास से आकाश में उड़ते हुए पर्वत फटने लगे । इस तरह क्रोध में भरे हुए राक्षस को देख चण्डिका को भी क्रोध आ गया और वह उसे मारने के लिए क्रोध में भर गई ।
देवी ने पाश फेंक र दैत्य को बाँध लिया और उसने बँध जाने पर दैत्य का रूप त्याग दिया और सिंह का रूप बना लिया और ज्यों ही देवी उसका सिर काटने के लिए तैयार हुई कि उसने पुरुष का रूप बना लिया, जोकि हाथ में तलवार लिये हुए था । देवी ने तुरन्त ही अपने बाणों के साथ उस पुरुष को उसकी तलवार ढाल सहित बींध डाला, इसके पश्चात वह हाथी के रूप में दिखाई देने लगा और अपनी लम्बी सूंड से देवी के सिंह को खींचने लगा और गर्जने लगा ।
देवी ने अपनी तलवार से उसकी सूंड काट डाली, तब राक्षस ने एक बार फिर भैंसे का रूप धारण कर लिया और पहले की तरह चर-अचर जीवों सहित समस्त त्रिलोकी को व्याकुल करने लगा, इसके पश्चात क्रोध में भरी हुई देवी बारम्बार उत्तम मधु का पान करने लगी और लाल-लाल नेत्र करके हँसने लगी ।
उधर बलवीर्य तथा मद से क्रुद्ध हुआ दैत्य भी गरजने लगा, अपने सींगों से देवी पर पर्वतों को फेंकने लगा । देवी अपने वाणों से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुई बोली-ओ मूढ़ ! जब तक मैं मधुपान कर रही हूँ, तब तू गरज ले और इसके पश्चात मेरे हाथों तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता गरजेंगे ।
महर्षि मेधा ने कहा-यों कहकर देवी उछल कर उस दैत्य पर जा चढ़ी और उसको अपने पैर से दबाकर शूल से उसके गले पर आघात किया, देवी के पैर से दबने पर भी दैत्य अपने दूसरे रूप से अपने मुख से बाहर होने लगा । अभी वह आधा ही बाहर निकला था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया, जब वह आधा निकला हुआ ही दैत्य युद्ध करने लगा तो देवी ने अपनी तलवार से उसका सिर काट दिया ।
इसके पश्चात सारी राक्षस सेना हाहाकार करती हुई वहाँ से भाग खड़ी हुई और सब देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा ऋषियों महर्षियों सहित देवी की स्तुति करने लगे, गन्धर्वराज गान करने तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगी ।

धन्यवाद !
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