Guru Govind Dou Khade | गुरु गोविन्द दोऊ खड़े

Kabir ke Dohe | गुरु गोविंद दोऊ खड़े | Kabir das ke Dohe in Hindi/ PDF | कबीर के दोहे | Guru Govind Dou Khade Doha | Guru Govind Dou Khade | Guru Govind Dou Khade Kake Lagu Paye

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय
(Guru Govind Dou Khade Kake Lagu Paye lyrics)

गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय (Guru Govind Dou Khade Kake Lagu Paye) संत कबीर दास जी की रचनाओं में से एक प्रशिद्ध दोहा हैं ।

संत कबीर दास जी का जन्म 1398 ई० में काशी में हुआ । संत कबीर दास जी 15 वी शताब्दी के महान राष्ट्रवादी परंपरा के भारतीय संत कवि थे । ये हिंदी साहित्य में भक्ति काल के समय के निर्गुण शाखा के महानतम ज्ञानमार्गी कवि रहे हैं । कबीर दास जी की रचनाओं ने 15 वी एवं 16 वी सदी के भारतीय भक्ति आंदोलन को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । इनकी रचनाओं को  सिखों के पवित्र आदि ग्रंथ में भी सम्मिलित किया गया है ।

इनकी आस्था सभी धर्मों में थी ये हिंदू और इस्लाम दोनों धर्म को मानते थे । कबीर दास जी गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर मानते थे । सनातन धर्म में गुरु का महत्व विशेष रूप से बताया गया है । सतयुग में गुरु का स्थान देवताओं से भी ऊपर बताया गया है । संत कबीर दास के इस दोहें में कबीर दास जी ने बड़ी खूबसूरती के साथ गुरु और शिष्य के बीच रिश्ते को बताया है । उनका मानना था कि गुरु के बिना हम ना तो ईश्वर को पहचान सकते हैं ना ही उन्हें प्राप्त कर सकते हैं । इसे भावना को नीचे के दोहे में बड़े अच्छे से कबीर दास जी महाराज ने लिखा है । 

गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ॥

Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी ने इस दोहे में गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि, जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (परमात्मा) साथ खड़े मिलें तब पहले किन्हें प्रणाम करना चाहिए । गुरु ने ही गोविन्द से हमें परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है ।

कबीरा ते नर अंध हैं, गुरु कों कहते औंर ।
हरि रूठे गुरु ठौर हैं, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, वे सभी लोग अंधे हैं जो गुरु को परमात्मा से अलग समझते हैं । अगर भगवान रूठ जाएँ तो गुरु का आश्रय है । पर यदि गुरु रूठ गए तो कहीं शरण नहीं मिलेगा ।

सब धरतीं कागज़ करूं, लेंखनी सब बनराय ।
सात समुंदर की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाये ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, अगर संपूर्ण धरती को कागज बना लिया जाये, समस्त जंगल की लकड़ियों का कलम बना लिया जाए और सभी सातों समुद्र के जल को स्याही बना लिया जायेगा तो भी गुरु की महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है ।

ये तन विंष की बेलरी, गुरु अमृत की ख़ान ।
शीश दियों जो गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी ने इस दोहे में, शरीर की तुलना विष के बेल से की है और वहीं गुरु की अमृत की ख़ान से । वे कहते हैं कि, अपने शीश देकर भी यदि गुरु की कृपा मिल पाएं तो ये सौदा भी बहुत ही सस्ता है ।

तीर्थ गए़ ते एक फल, संत मिलें फल चार ।
सद्गुरु मिलें अनेक फल, कहें कबीरा विचार ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, तीर्थ में जाने से केवल एक फल मिलता है । वही किसी संत से मिलने पर चार प्रकार के फल मिलते हैं । पर जीवन में अगर सच्चा गुरु मिल जायें तो समस्त प्रकार के फल मिल जाते हैं ।

गुरु पारस कों अन्तरों, जानत हैं सब संत ।
वह लोहा कंचन करें, ये करि लेय महन्त ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, गुरु और पारस के अंतर को ज्ञानी पुरुष ही भली-भांति से जानते हैं । जिस प्रकार पारस का स्पर्श लोहे को सोना बना देता है, ठीक उसी प्रकार गुरु का नित्य सान्निध्य शिष्यों को भी अपने गुरु के समान हीं महान बना देता है ।

बनिजारे के बैल ज्यों, भ्रमित फिर्यो चहुं देश ।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सत्गुरु उपदेश ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, जिस प्रकार बंजारों के बैल अपनी पीठ पर शक्कर लादे चारों ओर घूमते हैं, पर उनको खाने के लिए भूसा तक नहीं मिलता । उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी सद्गुरु के सुन्दर उपदेशों के बिना आत्मकल्याण के मार्गदर्शन से वंचित रहता है ।

गुरु किया हैं देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फ़िर फ़िर गोता खाहि ॥


Meaning (अर्थ) – इस दोहे में संत कबीर दास जी कहते हैं कि, हमें कभी भी बाहरीं चमक दमक को देखकर गुरु नहीं बनाना चाहिएं । बल्कि गुरु का चुनाव उनके ज्ञान और गुण को देखकर ही करना चाहिए । नहीं तो इस संसार रुपी सागर में गोता लगाना पड़ेगा ।

या दुनियां दो रोज़ की, मत कर यासों हेंत ।
गुरु चरन चि़त लाइये, जो पुराण सुख हेंत ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, यह दुनिया कुछ ही दिनों की है । इसलिए इससे ज्यादा मोह का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए । अपने ध्यान को गुरु के चरणों में लगाएं, जो सभी प्रकार का सुख देने वाला हैं ।

कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञांन जल होंय ।
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोयं ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, शिष्य की कुमति रुपी, कीचड़ को धोने के लिए गुरु ज्ञान रुपी, जल के समान हैं। वे शिष्य के जन्मों – जन्मों की सभी बुराइयों को पल भर में दूर कर देते हैं ।

कहते को कहीं जान दे, गुरु की सीख तू लेय ।
साकट जन औश्वान को, फेरि ज़वाब न देय ॥


Meaning (अर्थ) – संत कबीर दास जी कहते हैं कि, कहने वाले तो कहते रहेंगे पर तुम हमेशा ही एकमात्र गुरु की शिक्षा को अपने ह्रदय में धारण करना । कभी भी दु़ष्ट मनुष्यों और कुत्तों को पलट कर जवाब नहीं दिया करते हैं ।


परानाम

धन्यवाद


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