सत्यनारायण भगवान जी की व्रत कथा
Satyanarayan Bhagavan ji ki Vrat Katha
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा स्कंद पुराण के रेवाखंड में अवकलित की गई है। भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत कथा आस्थावान हिंदू ओ मे प्रचलित है। संपूर्ण भारत में इस कथा के अनगिनत प्रेमी है ,किसी भी शुभ कार्य या मनोकामना पूरी करने हेतु विधि-विधान से सत्य नारायण भगवान् की पूजा और कथा करवाई जाती है।
शास्त्रों के मुताबिक ऐसा माना गया है कि इस कथा को करने या सुनने वाले व्यक्ति के जीवन से दुखों को श्री हरि विष्णु खुद ही हर लेते हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान सत्यनारायण ही श्री हरि विष्णु का दूसरा रूप हैं और इस कथा की अपार महिमा को भगवान सत्यनारायण ने अपने मुख से देवर्षि नारद जी को बताया और सुनाया था।
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा : प्रथम अध्याय:
एक समय की बात है शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुँचे। ऋषि गण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्ट मुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सबसे सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादि ऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न देवर्षि नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था।
भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेश मुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुख-समृद्धि की प्राप्ति सत्याचरण द्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरण का अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।
कथा का प्रारम्भ सूत जी करते है। देवर्षि नारद जी भगवान श्री विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्री विष्णु जी प्रसन्न हुए और उन्होंने देवर्षि नारद जी से कहा- महाभाग! आप यहाँ किस प्रयोजन से आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ आपको बताउँगा।
देवर्षि नारद जी बोले – भगवन! मृत्युलोक में अपने पाप कर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत से प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके सभी कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो, तो वो सब मैं सुनना चाहता हूँ। उसे बताने कि कृपा करे।
श्री विष्णु भगवान ने कहा – हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे तुमको बताता हूँ, सुनो।
हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का महान पुण्य प्रद व्रत है।आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूँ। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष कि प्राप्ती कर सकता है।
भगवान की ऐसी वाणी सनु कर देवर्षि नारद मुनि ने कहा -प्रभु इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को कैान कर सकता और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।
श्री भगवान ने कहा – यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि को शांत करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और सन्तान देने वाला तथा सर्वत्र विजय को प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे।
नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को भक्ति पूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, अथवा गेहूँ के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ ।यह सभी सामग्री को सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।
बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्ति पूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर को जाना चाहिए।
ऐसा करने से मनुष्यों की सभी अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वी लोक में यह हि सबसे छोटा सा उपाय है।
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा : दूसरा अध्याय:
श्री सूतजी बोले – हे ऋषि गण! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसी का इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगर में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख प्यास से परेशान होकर वह धरती पर इधर-उधर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछे: हे विद्वान! नित्य दीन दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते हो?
दीन ब्राह्मण बोला: मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा के लिए धरती पर इधर-उधर घूमता हूँ। हे भगवान ! यदि आप इसका कोई भी उपाय जानते हो तो बताइए। वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले देव हैं, इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य अपने सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए भगवान सत्यनारायण उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अदृश्य हो गए। ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कहा है मैं उसे जरुर करूँगा। यह निश्चय करने के बाद उसे उस रात नीँद नहीं आई।
वो सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सारा धन मिला। जिससे उसने अपने बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया।
भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद हि वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेको प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय के बाद यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा। इसी तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो भी मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करेगा। जो मनुष्य इस व्रत को सुनेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा।
सूत जी बोले कि इस तरह से देवर्षि नारद जी से श्री नारायण जी का कहा हुआ श्री सत्यनारायण व्रत को मैंने तुमसे कहा है। हे विद्वान ! मैं अब और क्या कहूँ? ऋषि बोले: हे मुनिवर ! संसार में उस ब्राह्मण से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को जानना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में बहुत ही श्रद्धा का भाव है।
सूत जी बोले: हे मुनिवर! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वो सब सुनो ! एक समय वही ब्राह्मण धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बाँधवों के साथ इस व्रत को कर रहा था। उसी समय एक लकड़हारा जो बूढ़ा आदमी था वहाॅ आ गया और लकड़ियो को बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया।
प्यास से दुखी वो लकड़हारा उनको व्रत करते देख ब्राह्मण को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या कोेइ फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएँ। ब्राह्मण ने कहा कि सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है।
ब्राह्मण से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत हि प्रसन्न हुआ। चरणामृत व प्रसाद खाने के बाद वो अपने घर को आ गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो भी धन मिलेगा उसी से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करूँगा।
मन में इस विचार को ले बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ बहुत से धनी लोग रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों के दाम पहले से चार गुना अधिक मिला।
बूढ़ा प्रसन्नता के साथ केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बाँधवों को बुलाकर विधि-विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इसी व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुखो का भोग कर अंत काल में बैकुंठ धाम को चला गया।
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा : तीसरा अध्याय:
सूतजी बोले: हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा सुनाता हूँ। पहले के समय में एक उल्कामुख नाम का बहुत ही बुद्धिमान राजा था। वो सत्य वक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन वो देव स्थानों को जाता और निर्धनों को धन देकर उनके सभी कष्टो को दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के ही समान मुख वाली तथा सती-साध्वी थी।
भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने भगवान श्री सत्यनारायण जी का व्रत किया। उसी समय एक साधु नाम का वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत ही धन था। राजा को व्रत करते देख वह बङे विनय के साथ पूछने लगा: हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप ये क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो कृपया आप मुझे बताएँ।
राजा बोले: हे साधु! अपने बाँधवों के साथ पुत्रा की प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचनो को सुन साधु आदर से बोले: हे राजन ! मुझे भी इस व्रत का सारा विधान कहिए।
आपके कथनानुसार मैं भी इसी व्रत को करुँगा। मेरी भी कोइ संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से ही मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर को आ गया।
साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाला इस व्रत कथा का वर्णन सुनाया और कहा कि जब भी मेरी कोइ संतान होगी तब मैं इस व्रत को अवश्य करुँगा। साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहा।
एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर भगवान सत्यनारायण की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उनके गर्भ से एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। दिनों-दिन वो ऎसे बढ़ने लगी मानो जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने उस कन्या का नाम कलावती रखा।
एक दिन लीलावती ने अपने पति को याद दिलाया कि आपने भगवान सत्यनारायण के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था ,उसे करने का समय आ गया है, आप इस व्रत को पुरा करिये। साधु बोले कि हे प्रिये! मैं इस व्रत को उसके विवाह पर करुँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई।
साधु ने जब एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो अपने दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के लिेए योग्य वर देख कर आओ। साधु की बातो को सुनकर दूत कंचन नगर में पहुंचा और वहाँ से लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया लेकिन दुर्भाग्य की बात ये थी कि साधु ने अभी तक श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और उन्होंने श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिलेगा। अपने कार्य में कुशल साधु अपने जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित रत्नासारपुर नगर में गया।
वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगा। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग हि रहा था कि उसने देखा राजा के सिपाहियों उसका पीछा कर रहे हैं।
उसने चुराया हुआ धन वही रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का सारा धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को ही बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि दोनों चोरों को हम पकड़ लाएं हैं, आप हमे आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें।
राजा की आज्ञा से उन दोनों को ही कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन उनसे छीन लिया गया। श्री सत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी बहुत दुखी हुई। घर में जो थोङा धन रखा था उसे भी चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख-प्यास से अति दुखी हो कर अन्न की चिन्ता में कलावती ब्राह्मण के घर गई।
वहाँ उसने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देख कथा सुने लगी, फिर वह प्रसाद ग्रहण कर रात को घर वापिस आई। माता ने कलावती से पूछा हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है?
तब कलावती ने अपनी माता से कहा: हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है। मैं चाहती हुॅ कि हम भी ये व्रत रखे।कन्या के वचन सुन लीलावती ने भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने सभी परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगी कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र ही घर को आ जाएँ।
साथ ही यह भी प्रार्थना करने लगी कि हम सब का अपराध क्षमा करें। श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो कर राजा चन्द्रकेतु के सपने में दर्शन देते हुए कहा कि: हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो, वो दोनो चोर नही है।
अगर तुमने ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन, राज्य व संतान सभी को ही नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब बाते कहकर वह अन्तर्धान हो गए।
जब प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया और बोले कि उन दोनो को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ। दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा बोले: हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम दोनो को प्राप्त हुआ लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है।
ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्र-आभूषण भी पहनाए और जितना भी धन उनका लिया था, उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा : चौथा अध्याय:
सूतजी बोले: वैश्य ने अपनी यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल दिया। उनके थोड़ी दूर जाने पर ही एक दण्डी वेश धारी श्री सत्यनारायण ने उनसे पूछा: हे साधु तेरे नाव में क्या है? अभिवाणी शब्दों में हंसता हुआ बोला: हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है आपको? मेरी नाव में तो केवल बेल-पत्ते भरे हुए हैं।
वैश्य के कठोर वचन सुनकर भगवान बोले: तुम्हारा वचन सत्य हो! दण्डी ऎसे वचन कहकर वहाँ से दूर चले गए। कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए। दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया करने के पश्चात नाव को ऊँची उठते देखकर अचंभा रह गया और नाव में बेल-पत्ते आदि देख वह मूर्छित हो कर जमीन पर गिर पड़ा ।
मूर्छा खुलने पर वह बहुत शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक न मनाएँ, यह दण्डी का शाप है, इसलिए हम दोनो को उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामनाए पूरी होगी।
दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचे और अत्यंत भक्तिभाव से नमस्कार कर के बोला: मैंने आपसे जो भी असत्य वचन कहे थे, उनके लिए मुझे क्षमा दें, ऎसा कहकर वो रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले: हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से ही बार-बार तुम्हें दुख की प्राप्ती हुआ है।
तू मेरी पूजा से विमुख जो हुआ था।साधु बोला: हे भगवान ! आपकी माया से तो ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ। मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा।मेरी रक्षा करे और पहले की तरह नौका में धन भर दे।साधु वैश्य के भक्ति पूर्वक वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो कर उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।
जब ससुर-जमाई नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई थी फिर वहीं अपने सभी साथियों के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चल दिया। नगर के नजदीक पहुँचा तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया। दूत साधु की पत्नी को प्रणाम करता है और कहता कि मालिक अपने दामाद के साथ नगर के निकट आ गए हैं।
दूत की बात सुनकर साधु की पत्नी लीलावती ने हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही आ जा! मा के वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ अपने पति के पास चली गई।
प्रसाद की अपमान के कारण श्री सत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को भी पानी में डुबो दिया।जब कलावती अपने पति को वहाँ न पाया तो रोती हुई जमीन पर गिर पङी। नौका को डूबता हुआ देख और अपने कन्या को रोता देख साधु दुखी होकर बोला कि हे प्रभु ! मुझसे तथा मेरे परिवार वालो से जो भी कोेइ भूल हुई है उसे क्षमा करें।
साधु के दीन वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी कर के बताेए: हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है।
यदि वह घर जाकर सभी प्रसाद को खाकर लौटती है तो इसका पति अवश्य मिलेगा। ऎसी आकाशवाणी सुन कलावती भागते हुए घर को पहुंचकर प्रसाद खाती है और फिर आकर अपने पति के दर्शन करती है। उसके बाद साधु अपने बाँधवों सहित श्री सत्यनारायण भगवान का विधि-विधान से पूजन करता है। इस लोक का सभी सुख भोग वह अंत में स्वर्ग जाता है।
सत्यनारायण भगवान व्रत कथा : पाँचवाँ अध्याय:
सूतजी बोले: हे ऋषियों ! मैं एक और कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनीेए! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नामक एक राजा रहता था। उसने भी भगवान का प्रसाद को त्याग कर बहुत ही दुख सहन किया था। एक बार वो वन में वन्य पशुओं का शिकार कर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया।
वहाँ उसने देखा कि ग्वाले बहुत ही भक्ति-भाव से अपने बंधुओं के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर रहे है।अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान तक नहीं गया और ना ही उसने भगवान जी को नमस्कार किया।
ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया, लेकिन राजा ने प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ कर वह अपने नगर को चला गया।जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सब कुछ तहस-नहस हुआ था तो वह शीघ्र ही समझ गया कि ये सब भगवान ने ही किया है।
वह दुबारा भागता हुाआ ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद को खाया तब श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया।
दीर्घकाल तक सभी प्रकार के सुखो को भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।जो भी मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन भी धनी हो जाता है और भयमुक्त होकर जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान का सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठ धाम को जाता है।
सूतजी बोले: जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है, अब उनके दूसरे जन्म का कथा सुनाता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा जी का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की है। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष को प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ जी होकर बैकुंठ को गए।
साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने ही पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त होकर कर्म कर मोक्ष पाया।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय संपूर्ण ॥

धन्यवाद !
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