Durga Saptashati- Argala Stotram in Hindi Lyrics | अथार्गलास्तोत्रम् | दुर्गा सप्तशती

अथार्गलास्तोत्रम् | अर्गला स्तोत्रम्

Argala Stotram lyrics in Hindi

दुर्गा सप्तशती ‘अथार्गलास्तोत्रम्’ का पाठ दुर्गा कवच के बाद और दुर्गा कीलक स्त्रोत के पहले किया जाता है । यह स्त्रोत अत्यंत ही शुभ कारक और लाभप्रद है । यह देवी माहात्म्य के अंतर्गत किया जाने वाला स्त्रोत है । इस स्त्रोत में देवी के प्रत्येक रुप को नमस्कार करते हैं । वह हमारे काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करें, ऐसा निवेदन करते हैं । तथा वह भक्तों को सुख प्रदान करें यह बार -बार विनती करते हैं ।

यह स्त्रोत नवरात्रि के अलावा देवी पूजन या दुर्गा सप्तशती पाठ के साथ भी किया जाता है ।

“ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुक्रषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः” ॥ 

॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥

मार्कण्डेय उवाच

“ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते ॥ १ ॥

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोस्तु ते ॥ २ ॥ 

मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३ ॥ 

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४ ॥ 

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” ॥ ५ ॥

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है । मार्कण्डेय जी कहते हैं- जयन्ती’, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी’, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा ॥ १ ॥

इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके ! तुम्हें मेरा नमस्कार हो । देवि चामुण्डे ! माॅ तुम्हारी जय हो । सम्पूर्ण प्राणियों का पीड़ा हरने वाली देवी ! माॅ तुम्हारी जय हो । सबसे व्याप्त रहने वाली देवी ! माॅ तुम्हारी जय हो । कालरात्रि ! तुम्हें नमस्कार हो ॥ २ ॥

मधु और कैटभ को मारने वाली तथा भगवान ब्रह्मा जी को वरदान देने वाली देवी ! माॅ तुम्हें नमस्कार है । तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह -विजय तथा ज्ञान -प्राप्ति रूप यश) दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ३ ॥

महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवि ! माॅ तुम्हें नमस्कार है । तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ४ ॥

रक्तबीज का वध और चण्डमुण्ड का विनाश करने वाली देवि ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ५ ॥

“शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६ ॥

वन्दिताघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ७ ॥ 

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ८ ॥ 

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ९ ॥ 

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” ॥ १० ॥

शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवि ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ६ ॥

सब के द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभाग्य वरदान प्रदान करने वाली देवि ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ७ ॥

देवि ! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं । तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो । रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ८ ॥

पापों को दूर करने वाली चण्डिके ! जो भक्ति पूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ९ ॥

रोगों का नाश करने वाली चण्डिके ! जो भक्ति पूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम- क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥१० ॥

“चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११ ॥ 

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥ 

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४ ॥ 

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” ॥ १५ ॥ 

चण्डिके! इस संसार में जो भक्ति पूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ ११ ॥

मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो । परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १२ ॥

जो मुझसे द्वेष रखते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो । रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १३ ॥

देवि! मेरा कल्याण करो । मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो । रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १४ ॥

अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते रहते हैं । तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १५ ॥

“विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥ 

प्रचण्डदैत्यदर्पने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥ 

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥ 

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” ॥ २० ॥

तुम अपने भक्त जन को विद्वान्, यशस्वी और लक्ष्मीवान् बनाओ तथा माॅ रूप दो, जय दो, यश दो और उसके काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १६ ॥

प्रचण्ड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके! माॅ मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १७ ॥

चतुर्मुख ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित चार भुजा धारिणी परमेश्वरि! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ १८ ॥

देवि अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य -निरन्तर भक्ति पूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं । माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥१९ ॥

हिमालय -कन्या पार्वती के पति महादेव जी के द्वारा प्रशंसित होने वाली परमेश्वरि ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ २० ॥

“इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१॥ 

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २२ ॥

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३ ॥

पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ २४ ॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
सतु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्”  ॥ २५ ॥

॥ ॐ ॥

इति देव्या अथार्गलास्तोत्रम् सम्पूर्णम् । 

शचीपति इन्द्र के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाली परमेश्वरि ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ २१ ॥

प्रचण्ड भुज दण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवी ! माॅ तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ २२ ॥

देवी अम्बिके ! तुम अपने भक्त जनों को सदा असीम आनन्द प्रदान करती रहती हो । माॅ मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम -क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥ २३ ॥

मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार सागर से तारने वाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो ॥ २४ ॥
जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ कर के सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप -संख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है । साथ ही वह प्रचुर सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेता है ॥ २५ ॥

॥ इति देव्या अथार्गलास्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥


parnam

धन्यवाद !


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